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१२८ प्रमाणमीमांसाया:
[पृ० १. पं० १जैनपरम्परा में प्रमात्व किवा प्रामाण्य का प्रश्न उसमें तर्कयुग पाने के बाद का है, पहिले का नहीं। पहिले तो उसमें मात्र आगमिक दृष्टि थी। आगमिक दृष्टि के अनुसार दर्शनोपयोग को प्रमाण किवा अप्रमाण कहने का प्रश्न ही न था। उस दृष्टि के अनुसार दर्शन
हो या ज्ञान, या तो वह सम्यक हो सकता है या मिथ्या। उसका सम्यक्त्व और मिथ्यात्व 5 भी आध्यात्मिक भावानुसारी ही माना जाता था। अगर कोई प्रात्मा कम से कम चतुर्थ
गुणस्थान का अधिकारी हो अर्थात् वह सम्यक्त्वप्राप्त हो तो उसका सामान्य या विशेष कोई भी उपयोग मोक्षमार्गरूप तथा सम्यग्रूप माना जाता है। तदनुसार आगमिक दृष्टि से सम्यक्त्वयुक्त प्रात्मा का दर्शनोपयोग सम्यक्दर्शन है और मिथ्यादृष्टियुक्त प्रात्मा का दर्शनोपयोग मिथ्यादर्शन है। व्यवहार में मिथ्या, भ्रम या व्यभिचारी समझा जानेवाला भी 10 दर्शन अगर सम्यक्त्वधारि-प्रात्मगत है तो वह सम्यग्दर्शन ही है जब कि सत्य, अभ्रम और प्रबाधित समझा जानेवाला भी दर्शनोपयोग अगर मिथ्यादृष्टियुक्त है तो वह मिथ्यादर्शन ही है ।
दर्शन के सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व का आगमिक दृष्टि से जो प्रापेक्षिक वर्णन ऊपर किया गया है वह सन्मतिटोकाकार अभयदेव ने दर्शन को भी प्रमाण कहा है इस आधार पर
समझना चाहिए। तथा उपाध्याय यशोविजयजी ने संशय आदि ज्ञानों को भी सम्यक दृष्टि. ] युक्त होने पर सम्यक् कहा है इस आधार पर समझना चाहिए। आगमिक प्राचीन और
श्वेताम्बर-दिगम्बर उभय साधारण परम्परा तो ऐसा नहीं मानती, क्योंकि दोनों पराम्पराओं के अनुसार चक्षु, अचक्षु, और अवधि तीनों दर्शन दर्शन ही माने गये हैं। उनमें से न कोई सम्यक् या न कोई मिथ्या और न कोई सम्यमिथ्या उभयविध माना गया है जैसा कि
मति-श्रु त-अवधि ज्ञान सम्यक् और मिथ्या रूप से विभाजित हैं। इससे यही फलित होता 20 है कि दर्शन उपयोग मात्र निराकार होने से उसमें सम्यग्दृष्टि किंवा मिथ्यादृष्टिप्रयुक्त अन्तर
की कल्पना की नहीं जा सकती । दर्शन चाहे चक्षु हो, अचक्षु हो या अवधि-वह दर्शन मात्र है उसे न सम्यग्दर्शन कहना चाहिए और न मिथ्यादर्शन। यही कारण है कि पहिले गुण स्थान में भी वे दर्शन ही माने गए हैं जैसा कि चौथे गुणस्थान में। यह वस्तु गन्धहस्ति
सिद्धसेन ने सूचित भी की है-"अत्र च यथा साकाराद्धायां सम्यङ मिथ्यादृष्टयोर्विशेषः, 25 नैवमस्ति दर्शने, अनाकारत्वे द्वयोरपि तुल्यत्वादित्यर्थ:"-तत्त्वार्थभा० टी २. ६ ।
___ यह हुई आगमिक दृष्टि की बात जिसके अनुसार उमास्वाति ने उपयोग में. सम्यक्त्व-असम्यक्त्व का निदर्शन किया है। पर जैनपरम्परा में तर्कयुग दाखिल होते ही प्रमात्व-अप्रमात्व या प्रामाण्य अप्रामाण्य का प्रश्न पाया। और उसका विचार भी प्राध्यात्मिक भावानुसारी न होकर विषयानुसारी किया जाने लगा जैसा कि जैनेतर दर्शनों में तार्किक 30 विद्वान् कर रहे थे। इस तार्किकदृष्टि के अनुसार जैनपरम्परा दर्शन को प्रमाण मानती है, अप्रमाण मानती है, उभयरूप मानती है या उभयभिन्न मानती है ? यह प्रश्न यहाँ प्रस्तुत है।
१-“सम्यग्दृष्टिसम्बन्धिनां संशयादीनामपि ज्ञानत्वस्य महाभाष्यकृता परिभाषितत्वात्'-शान- , बिन्दु पृ० १३६ B. नन्दी सू० ४१
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