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५० १.० १.]
भाषाटिप्पणानि ।
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-: तार्किकदृष्टि के अनुसार भी जैनपरम्परा में दर्शन के प्रमाव या अप्रमात्व के बारे में कोई एकवाक्यता नहीं। सामान्यरूप से श्वेताम्बर हो या दिगम्बर सभी तार्किक दर्शन को प्रमाण कोटि से बाहर ही रखते हैं। क्योंकि वे सभी बौद्धसम्मत निर्विकल्पक के प्रमात्व का खण्डन करते हैं और अपने अपने प्रमाण लक्षण में विशेषोपयोगबोधक ज्ञान, निर्णय प्रादि पद दाखिल करके सामान्य उपयोग दर्शन को प्रमाण लक्षण का अलक्ष्य. ही मानते हैं । इस 5 तरह दर्शन को प्रमाण न मानने की तार्किक परम्परा श्वेताम्बर-दिगम्बर सभी ग्रन्थों में साधारण है । माणिक्यनन्दी और वादी देवसूरि ने तो दर्शन को न केवल प्रमाणबाह्य ही रक्खा है बल्कि उसे प्रमाणाभास (परी०६.२ । प्रमाणन० ६. २४,२५) भी कहा है। .
__ सन्मतिटीकाकार अभयदेव ने ( सन्मतिटी० पृ० ४५७ ) दर्शन को प्रमाण कहा है पर वह कथन तार्किकदृष्टि से न समझना चाहिए। क्योंकि उन्होंने आगमानुसारी सन्मति 10 की व्याख्या करते समय प्रागमदृष्टि ही लक्ष्य में रखकर दर्शन को सम्यग्दर्शन अर्थ में प्रमाण कहा है, न कि तार्किकदृष्टि से विषयानुसारी प्रमाण। यह विवेक उनके उस सन्दर्भ से हो जाता है। .. अलबत्ता उपाध्याय यशोविजयजी के दर्शन सम्बन्धी प्रामाण्य-अप्रामाण्य विचार में कुछ विरोध साजान पड़ता है। एक ओर वे दर्शन को व्यजनावग्रह-अनन्तरभावी नैश्चयिक 15 प्रवाहरूप बतलाते हैं२ जो मतिव्यापार होने के कारण प्रमाण कोटि में पा सकता है। और दूसरी ओर वे वादिदेव के प्रमाण लक्षणवाले सूत्र की व्याख्या में ज्ञानपद का प्रयोजन बतलाते हुए दर्शन को प्रमाणकोटि से बहिर्भूत बतलाते हैं-तर्कभाषा पृ० १ । इस तरह उनके कथन में जहाँ एक ओर दर्शन बिलकुल प्रमाणबहिभूत है वहाँ दूसरी ओर अवग्रह रूप होने से प्रमाणकोटि में प्राने योग्य भी है। परन्तु जान पड़ता है उनका तात्पर्य कुछ 20 . और है। और सम्भवत: वह तात्पर्य यह है कि मत्यंश होने पर भी नैश्चयिक अवप्रह प्रवृत्ति-निवृत्तिव्यवहारक्षम न होने के कारण प्रमाणरूप गिना ही न जाना चाहिए। इसी अभिप्राय से उन्होंने दर्शन को प्रमाणकोटिबहिभूत बतलाया है ऐसा मान लेने से फिर कोई विरोध नहीं रहता।
प्राचार्य हेमचन्द्र ने वृत्ति में दर्शन से सम्बन्ध रखनेवाले विचार तीन जगह प्रसङ्गक्श 25 प्रगट किए हैं । अवग्रह का स्वरूप दर्शाते हुए उन्होंने कहा है कि दर्शन जो अविकल्पक है.. वह प्रवाह नहीं, प्रवाह का परिणामी कारण अवश्य है और वह इन्द्रियार्थसम्बन्ध के बाद पर प्रवाह के पूर्व उत्पन्न होता है-१. १. २६ । बौद्धसम्मत निर्विकल्पक ज्ञान को अप्रमाण बवलाते हुए उन्होंने कहा है कि वह अनध्यवसाय रूप होने से प्रमाण नहीं, अध्यवसाय या निर्णय ही प्रमाण गिना जाना चाहिए-१. १:६। उन्होंने निर्णय का अर्थ बतलाते हुए 30 कहा है कि अनभ्यवसाय से भिन्न तथा अविकल्पक एवं संशय से भिन्न ज्ञान ही निर्णय है
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भमाएन०१.२
. १ लघी० परी० १.३। प्रमेयक० पृ०८। प्रमाणन० १.२ ::. २ तर्कभाषा पृ०५।... शानबिन्दु पृ० १३८ ।।
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