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________________ पृ० १. पं० १.] भाषाटिप्पणानि । १२७ परोक्ष में भी की जानी चाहिए, क्योंकि तार्किक परिभाषा के अनुसार परोक्ष मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है अतएव तदनुसार मति उपयोग के क्रम में सर्वप्रथम अवश्य होनेवाले दर्शन नामक बोध को भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जा सकता है पर प्रागमिक प्राचीन विभाग, जिसमें पारमार्थिक-सांव्यवहारिकरूप से प्रत्यक्ष के भेदों को स्थान नहीं है, तदनुसार तो मतिज्ञान परोक्ष मात्र ही माना जाता है जैसा कि तत्त्वार्थ- b सूत्र ( १. ११) में देखा जाता है। तदनुसार जैनपरम्परा में इन्द्रियजन्य दर्शन परोक्षरूप ही है प्रत्यक्षरूप नहीं। सारांश यह कि जैन परम्परा में तार्किक परिभाषा के अनुसार दर्शन प्रत्यक्ष भी है और परोक्ष भी। अवधि और केवल रूप दर्शन तो मात्र प्रत्यक्षरूप ही हैं जब कि इन्द्रियजन्य दर्शन परोक्षरूप होने पर भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना जाता है। परन्तु आगमिक परिपाटी के अनुसार इन्द्रियजन्य दर्शन केवल परोक्ष ही है और इन्द्रियनिरपेक्ष 10 अवध्यादि दर्शन केवल प्रत्यक्ष ही हैं। ५ उत्पादक सामग्री-लौकिक निर्विकल्पक जो जैन तार्किक परम्परा के अनुसार सांव्यवहारिक दर्शन है उसकी उत्पादक सामग्री में विषयेन्द्रियसन्निपात और यथासम्भव पालोकादि सग्निविष्ट हैं। पर अलौकिक निर्विकल्प जो जैनपरम्परा के अनुसार पारमा. र्थिक दर्शन है उसकी उत्पत्ति इन्द्रियसन्निकर्ष के सिवाय ही केवल विशिष्ट आत्मशक्ति से 15 मानी गई है। उत्पादक सामग्री के विषय में जैन और जैनेतर परम्पराएँ कोई मतभेद नहीं रखतीं। फिर भी इस विषय में शाङ्कर वेदान्त का मन्तव्य जुदा है जो ध्यान देने योग्य है। वह मानता है कि 'तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्यजन्य अखण्ड ब्रह्मबोध भी निर्विकल्पक है। इसके अनुसार निर्विकल्पक का उत्पादक शब्द आदि भी हुआ जो अन्य परम्परासम्मत नहीं। ६ प्रामाण्य-निर्विकल्प के प्रामाण्य के सम्बन्ध में जैनेतर परम्पराएँ भी एकमत नहीं। बौद्ध और वेदान्त दर्शन तो निवि कल्पक को ही प्रमाण मानते हैं इतना ही नहीं बल्कि उनके मतानुसार निर्विकल्पक ही मुख्य व पारमार्थिक प्रमाण है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में निर्विकल्पक के प्रमात्व सम्बन्ध में एकविध कल्पना नहीं है। प्राचीन परम्परा के अनुसार निर्विकल्पक प्रमारूप माना जाता है जैसा कि श्रीधर ने स्पष्ट किया है ( कन्दली पृ. 25 १९८ ) और विश्वनाथ ने भी भ्रमभिन्नत्वरूप प्रमात्व मानकर निर्विकल्पक को प्रमा कहा है (कारिकावली का०१३४) परन्तु गङ्गश की नव्य परम्परा के अनुसार निर्विकल्पक न प्रमा है और न अप्रमा। तदनुसार प्रमात्व किवा अप्रमात्व प्रकारतादिघटित होने से, निर्विकल्प जो प्रकारतादिशून्य है वह प्रमा-अप्रमा उभय विलक्षण है-कारिकावली का० १३५ । पूर्वमीमांसक और सांख्य-योगदर्शन सामान्यत: ऐसे विषयों में न्याय-वैशेषिकानुसारी होने से उनके 30 मतानुसार भी निर्विकल्पक के प्रमात्व की वे ही कल्पनाएँ मानी जानी चाहिए जो न्यायवैशेषिक परम्परा में स्थिर हुई हैं। इस सम्बन्ध में जैन परम्परा का मन्तव्य यहाँ विशेष रूप से वर्णन करने योग्य है। 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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