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________________ १०४ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० ५७. पं० :एवं विस्तृत है। पर दृष्टान्ताभास का निरूपण उतना प्राचीन नहीं जान पड़ता। अगर दृष्टान्ताभास का विचार भी हेत्वाभास जितना ही पुरातन होता तो उसका सूचन कणाद या न्यायसूत्र में थोड़ा बहुत ज़रूर पाया जाता। जो कुछ हो इतना तो निश्चित है कि हेत्वाभास की कल्पना के ऊपर से ही पीछे से कभी दृष्टान्ताभास, पक्षाभास आदि की 5 कल्पना हुई और उनका निरूपण होने लगा। यह निरूपण पहिले वैदिक तार्किको ने शुरू किया या बौद्ध तार्किकों ने, इस विषय में अभी कुछ भी निश्चित कहा नहीं जा सकता। दिङ्नाग के माने जानेवाले न्यायप्रवेश में पांच साधर्म्य और पांच वैधर्म्य ऐसे दस दृष्टान्ताभास हैं । यद्यपि मुख्यतया पाँच पाँच ऐसे दो विभाग उसमें हैं तथापि उभया. सिद्ध नामक दृष्टान्ताभास के अवान्तर दो प्रकार भी उसमें किये गये हैं जिससे वस्तुतः 10 न्यायप्रवेश के अनुसार छः साधर्म्य दृष्टान्ताभास और छः वैधर्म्य दृष्टान्ताभास फलित होते हैं। प्रशस्तपाद ने भी इन्हों छः छः साधर्म्य एवं वैधर्म्य दृष्टान्ताभासों का निरूपण किया है। न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद के निरूपण में उदाहरण और भाव एक से ही हैं अलबत्ता दोनों के नामकरण में अन्तर अवश्य है। प्रशस्तपाद दृष्टान्ताभास शब्द के बदले निदर्शनाभास शब्द का प्रयोग पसन्द करते हैं क्योंकि उनकी अभिमत न्यायवाक्य परिपाटी 15 में उदाहरण का बोधक निदर्शन शब्द आता है। इस सामान्य नाम के सिवाय भी न्यायप्रवेश और प्रशस्तपादगत विशेष नामों में मात्र पर्याय भेद है। माठर का० ५ भी निदर्शनाभास शब्द ही पसन्द करते हैं। जान पड़ता है वे प्रशस्तपाद के अनुगामी हैं । यद्यपि प्रशस्तपाद के अनुसार निदर्शनाभास की कुल संख्या बारह ही होती हैं और माठर दस संख्या का उल्लेख करते हैं। पर जान पड़ता है कि इस संख्याभेद का कारण-आश्रयासिद्ध 20 नामक दो साधर्म्य-वैधर्म्य दृष्टान्ताभास की माठर ने विवक्षा नहीं की-यही है। जयन्त ने ( न्यायम० पृ. ५८० ) न्यायसूत्र की व्याख्या करते हुए पूर्ववर्ती बौद्धवैशेषिक आदि ग्रन्थगत दृष्टान्ताभास का निरूपण देखकर न्यायसूत्र में इस निरूपण की कमी का अनुभव किया और उन्होंने न्यायप्रवेशवाले सभी दृष्टान्ताभासे को लेकर अपनाया एवं अपने मान्य ऋषि की निरूपण कमी को भारतीय टीकाकार शिष्यों के ढङ्ग से भक्त के तौर पर 25 दूर किया। न्यायसार में ( पृ० १३) उदाहरणाभास नाम से छः साधर्म्य के और छः १ "दृष्टान्ताभासा द्विविध: साधम्र्येण वैधम्र्येण च .....तत्र साधयेण...तद्यथा साधनधर्मासिद्धः साध्यधर्मासिद्धः उभयधर्मासिद्धः अनन्वयः विपरीतान्वयश्चेति ।.....वैधयेणापि दृष्टान्ताभासः पञ्चप्रकार: तद्यथा साध्याव्यावृत्तः साधनाव्यावृत्तः उभयाव्यावृत्तः अव्यतिरेकः विपरीतव्यतिरेकश्चेति... ........।" न्यायप्र० पृ०५-६। २ "अनेन निदर्शनाभासा निरस्ता भवन्ति । तद्यथा नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात् यदमूर्त दृष्टं तन्नित्यम् यथा परमाणुर्यथा कर्म यथा स्थाली यथा तम: अम्बरवदिति यद् द्रव्यं तत् क्रियावद् दृष्टमिति च लिङ्गानुमेयोभयाश्रयासिद्धाननुगतविपरीतानुगताः साधर्म्यनिदर्शनाभासाः। यदनित्य तन्मूर्त दृष्टं यथा कर्म यथा परमाणुर्यथाकाशं यथा तमः घटवत् यन्निष्क्रियं तदद्रव्यं चेति लिङ्गानुमेयोभयाव्यावृत्ताश्रयासिद्धाव्यावृत्तविपरीतव्यावृत्ता वैधर्म्यनिदर्शनाभासा इति ।"-प्रशस्त० पृ०२४७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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