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________________ १०५७. पं० १.] भाषाटिप्पणानि । वैधर्म्य के इस तरह बारह प्राभास वही हैं जो प्रशस्तपाद में हैं। इसके सिवाय न्यायसार .. में अन्य के नाम से चार साधर्म्य के विषय में सन्दिग्ध और चार वैधर्म्य के विषय में सन्दिग्ध ऐसे माठ सन्दिग्ध उदाहरणाभास भी दिये हैं१ । सन्दिग्ध उदाहरणाभासों की सृष्टि न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद के बाद की जान पड़ती है। धर्मकीर्ति ने साधर्म्य के नव और वैधर्म्य के नव ऐसे अठारह दृष्टान्ताभास सविस्तर वर्णन किये हैं। जान पड़ता है न्यायसार 6 में अन्य के नाम से जो साधर्म्य और वैधर्म्य के चार चार सन्दिग्ध उदाहरणाभास दिये हैं उन पाठ सन्दिग्ध भेदों की किसी पूर्ववर्ती परम्परा का संशोधन करके धर्मकीर्ति ने साधर्म्य और वैधर्म्य के तीन-तीन ही सन्दिग्ध दृष्टान्ताभास रक्खे । दृष्टान्ताभासों की संख्या, उदाहरण और उनके पीछे के साम्प्रदायिक भाव इन सब बातों में उत्तरोत्तर विकास होता गया जो । धर्मकीर्ति के बाद भी चालू रहा। 10 जैन परम्परा में जहाँ तक मालूम है सबसे पहिले दृष्टान्ताभास के निरूपक सिद्धसेन ही हैं। उन्होंने बौद्ध परम्परा के दृष्टान्ताभास शब्द को ही चुना न कि वैदिक परम्परा के निदर्शनाभास और उदाहरणाभास शब्द को। सिद्धसेन ने२ अपने संक्षिप्त कथन में संख्या का निर्देश तो नहीं किया परन्तु जान पड़ता है कि वे इस विषय में धर्मकीर्ति के समान ही नव-नव दृष्टान्ताभासों को माननेवाले है । माणिक्यनन्दी ने तो पूर्ववर्ती 15 सभी के विस्तार को कम करके साधर्म्य और वैधर्म्य के चार-चार ऐसे कुल आठ ही दृष्टान्ताभास दिखलाये हैं और ( परी० ६. ४०-४५ कुछ उदाहरण भी बदलकर नये रचे हैं। वादी देवसूरि ने तो उदाहरण देने में माणिक्यनन्दी का अनुकरण किया, पर भेदों की संख्या, नाम प्रादि में अक्षरशः धर्मकीर्ति का ही अनुकरण किया है। इस स्थल में वादी देवसूरि ने एक बात नई ज़रूर की। वह यह कि धर्मकीर्ति ने उदाहरण देने में जो वैदिक ऋषि एवं जैन 20 तीर्थंकरों का लघुत्व दिखाया था उसका बदला वादी देवसूरि ने सम्भवित उदाहरणों में तथागत बुद्ध का लघुत्व दिखाकर पूर्ण रूप से चुकाया। धर्मकीर्ति के द्वारा अपने पूज्य पुरुषों के ऊपर तर्कशास्त्र में की गई चोट को वादिदेव सह न सके, और उसका बदला तर्कशास्त्र में ही प्रतिबन्दी रूप से चुकाया । १ "अन्ये तु संदेहद्वारेणापरानष्टाबुदाहरणाभासान्वर्णयन्ति। सन्दिग्धसाध्यः.........सन्दिग्धसाधनः.........सन्दिग्धेोभयः......सन्दिग्धाश्रयः........सन्दिग्धसाध्याव्यावृत्तः......सन्दिग्धसाधनाव्यावृत्तः ...सन्दिग्धेोभयाव्यावृत्तः........ सन्दिपधाश्रयः......... "-न्यायसार पृ० १३-१४। २ "साधयेणात्र दृष्टान्तदोषा न्यायविदीरिताः। अपलक्षण हेतूत्थाः साध्यादिविकलादयः॥ वैधयेणात्र दृष्टान्तदोषा न्यायविदीरिताः। साध्यसाधनयुग्मानामनिवृत्तश्च संशयात् ॥"-न्याया० २४-२५ । ३ “यथा नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात्, कर्मवत् परमाणुबद् घटवदिति साध्यसाधनधर्मोभयविकलाः । तथा सन्दिग्धसाध्यधर्मादयश्च, यथा रागादिमानयं वचनाद्रथ्यापुरुषवत् , मरणधर्मोऽयं पुरुषो रागादिमत्त्वाद्रध्यापुरुषवत्, असर्वशोऽयं रागादिमत्वाद्रथ्यापुरुषवत् इति। अनन्वयोऽप्रदर्शितान्वयश्च, यथा यो वका स रागादिमानिष्टपुरुषवत्, अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवत् इति । तथा विपरीतान्वयः, यदनित्यं तत् कृतकमिति । साधर्येण । वैधयेणापि, परमाणुवत् कर्मवदाकाशवदिति साध्याद्यव्यतिरेकिणः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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