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पृ० ५७. पं० ६.] - भाषाटिप्पणानि ।
१०३ जिसका अन्त न्यायमजरी में हुआ जान पड़ता है। जयन्त फिर अपने पूर्वीचार्यों का पक्ष लेकर न्यायप्रवेश और धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु का सामना करते हैं। वे असाधारण और विरुद्धाव्यभिचारी को अनैकान्तिक न मानने का प्रशस्तपादगत मत का बड़े विस्तार से समर्थन करते हैं पर साथ ही वे संशयजनकत्व को अनेकान्तिकता का नियामक रूप मानने से भी इन्कार करते हैं ।
भासर्वज्ञ ने बौद्ध, वैदिक तार्किकों के प्रस्तुत विवाद का स्पर्श न कर अनैकान्तिक हेत्वाभास के पाठ उदाहरण दिये हैं (न्यायसार पृ० १०), और कहीं संशयजनकता का उल्लेख नहीं किया है। जान पड़ता है वह गौतमीय परम्परा का अनुगामी है।। - जैन परम्परा में अनैकान्तिक और सन्दिग्ध यह दोनों ही नाम मिलते हैं। अकलङ्क (न्यायवि. २. १६६ ) सन्दिग्ध शब्द का प्रयोग करते हैं जब कि सिद्धसेन ( न्याया० २३ ) 10
आदि अन्य जैन तार्किक अनैकान्तिक पद का प्रयोग करते हैं। माणिक्यनन्दी की अनैकान्तिक निरूपण विषयक सूत्ररचना प्रा. हेमचन्द्र की सूत्ररचना की तरह ही वस्तुत: न्यायबिन्दु की सूत्ररचना की संक्षिप्त प्रतिच्छाया है। इस विषय में वादिदेव की सूत्ररचना वैसी परिमार्जिन नहीं जैसी माणिक्यनन्दी और हेमचन्द्र की है, क्योंकि वादिदेव ने अनैकान्तिक के सामान्य लक्षण में ही जो 'सन्दिह्यते' का प्रयोग किया है वह ज़रूरी नहीं जान 15 पड़ता। जो कुछ हो पर इस बारे में प्रभाचन्द्र, वादिदेव और हेमचन्द्र इन तीनों का एक ही मार्ग है कि वे सभी अपने अपने ग्रन्थों में भासर्वज्ञ के पाठ प्रकार के अनैकान्तिक को लेकर अपने अपने लक्षण में समाविष्ट करते हैं। प्रभाचन्द्र के ( प्रमेयक० पृ० १६२ B) सिवाय औरों के अन्थों में तो पाठ उदाहरण भी वे ही हैं जो न्यायसार में हैं। प्रभाचन्द्र ने कुछ उदाहरण बदले हैं।
20 ___यहाँ यह स्मरण रहे कि किसी जैनाचार्य ने साध्यसंदेहजनकत्व को या साध्यव्यभिचार को अनेकान्तिकता का नियामक रूप मानने न मानने की बौद्ध-वैशेषिकग्रन्थगत चर्चा को नहीं लिया है।
पृ०५६. पं० २१. 'ये चान्ये -तुलना-"पक्षत्रयव्यापको यथा अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्।" न्यायसार पृ० १० । न्यायप्र० पृ० ३ । प्रमेयक० पृ० १६२ B. स्याद्वादर० पृ० १२२८ । ... 25
प्र० २. प्रा० १. सू० २२-२७. पृ० ५७. परार्थ अनुमान प्रसङ्ग में हेत्वाभास का निरूपण बहुत प्राचीन है। कणादसूत्र (३.१.१५) और न्यायसूत्र (१.२.४-६) में वह स्पष्ट भियुगपत् सामान्यमिति ।......द्वितीयोऽपि प्रयोगो यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सन्नोपलभ्यते न तत् तत्रास्ति । तद्यथा क्वचिदविद्यमानो घटः। नापलभ्यते चापलब्धिलक्षणप्राप्त सामान्य व्यक्त्यन्तरालेष्विति। अयमनुपलम्भप्रयोगः स्वभावश्च परस्परविरुद्धार्थ साधनादेकत्र संशयं जनयतः।"-न्यायबि० ३.११२-१२१ ।
१ "असाधारणविरुद्धाव्यभिचारिणौ तु न संस्त एव हेत्वाभासाविति न व्याख्यायेते ।............ अपि च संशयजननमनैकान्तिकलक्षणमुच्यते चेत् काममसाधारणस्य विरुद्धाव्यभिचारिणो वा यथा तथा संशयहेतुतामधिरोप्य कथ्यतामनैकान्तिकता न तु संशयजनकत्व तल्लक्षणम्...अपि तु पक्षद्वयवृत्तित्वमनैकान्तिक. लक्षणम्......"-न्यायम० पृ०५६८-५६६।
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