________________
१०२ प्रमाणेमीमांसाया:
[पृ० ५६. पं० १७कि कणादसूत्र में अविद्यमान अनध्यवसित पद पहिले पहिल प्रशस्तपाद ने ही प्रयुक्त किया या उसके पहिले भी इसका प्रयोग अलग हेत्वाभास अर्थ में रहा। न्यायप्रवेश में विरुद्धा. व्यभिचारी का उदाहरण-"नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् शब्दत्ववत् ; अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत्" यह है, जब कि प्रशस्तपाद में उदाहरण-"मन: मूर्तम् क्रियावत्त्वात् ; मन: अमू5 तम् अस्पर्शवत्त्वात्" यह है। प्रशस्तपाद का उदाहरण तो वैशेषिक प्रक्रिया अनुसार है ही, पर आश्चर्य की बात यह है कि बौद्ध न्यायप्रवेश का उदाहरण खुद बौद्ध प्रक्रिया के अनुसार न होकर एक तरह से वैदिक प्रक्रिया के अनुसार ही है क्योकि जैसे वैशेषिक आदि वैदिक तार्किक शब्दत्व को जातिरूप मानते हैं वैसे बौद्ध तार्किक जाति को नित्य नहीं मानते ।
अस्तु, यह विवाद आगे भी चला। 10 तार्किकप्रवर धर्मकीर्ति ने हेत्वाभास की प्ररूपणा बौद्धसम्मत हेतुत्रैरूप्य के१
आधार पर की, जो उनके पूर्ववर्ती बौद्ध ग्रन्थों में अभी तक देखने में नहीं पाई। जान पड़ता है प्रशस्तपाद का अनैकान्तिक हेत्वाभास विषयक बौद्ध मन्तव्य का खण्डन बराबर धर्मकीर्ति के ध्यान में रहा। उन्होंने प्रशस्तपाद को जवाब देकर न्यायप्रवेश का बचाव किया। धर्म
कीर्ति ने व्यभिचार को अनैकान्तिकता का नियामकरूप न्यायसूत्र की तरह माना फिर भी 15 उन्होंने न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद की तरह संशयजनकत्व को भी उसका नियामक रूप
मान लिया । प्रशस्तपाद ने न्यायप्रवेशसम्मत असाधारण को अनैकान्तिक मानने का यह कहकर के खण्डन किया था कि वह संशयजनक नहीं है। इसका जवाब धर्मकीर्ति ने असाधारण का न्यायप्रवेश की अपेक्षा जुदा उदाहरण रचकर और उसकी संशयजनकता दिखाकर, दिया और बतलाया कि असाधारण अनैकान्तिक हेत्वाभास ही है। इतना करके 20 ही धर्मकीर्ति सन्तुष्ट न रहे पर अपने मान्य आचार्य दिङ्नाग की परम्परा को प्रतिष्ठित
बनाये रखने का और भी प्रयत्न किया। प्रशस्तपाद ने विरुद्धाव्यभिचारी के खण्डन में जो दलील दी थी उसको स्वीकार करके भी प्रशस्तपाद के खण्डन के विरुद्ध उन्होंने विरुद्धाव्य. भिचारी का समर्थन किया और वह भी इस ढंग से कि दिङ्नाग की प्रतिष्ठा भी बनी रहे और
प्रशस्तपाद का जवाब भी हो। ऐसा करते समय धर्मकीर्ति ने विरुद्धाव्यभिचारी का जो 30 उदाहरण दिया है वह न्यायप्रवेश और प्रशस्तपाद के उदाहरण से जुदा है फिर भी
वह उदाहरण वैशेषिक प्रक्रिया के अनुसार होने से प्रशस्तपाद को अग्राह्य नहीं हो सकता। इस तरह बौद्ध और वैदिक तार्किकों की इस विषय में यहाँ तक चर्चा आई
१ "तत्र त्रयाणां रूपाणामेकस्यापि रूपस्यानुक्तौ साधनाभासः। उतावप्यसिद्धौ सन्देहे वा प्रतिपाद्यप्रतिपादकयाः। एकस्य रूपस्य"..... इत्यादि-न्यायबि०३.५७ से।
२ "अनयोरेव द्वयो रूपयोः संदेहेऽनैकान्तिकः। यथा सात्मक जीवच्छरोरं प्राणादिमत्त्वादिति । ......अत एवान्वयव्यतिरेकयाः संदेहादनैकान्तिकः। साध्येतरयारतो निश्चयाभावात् । -न्यायबि० ३.६८-११०।
३ "विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः। स इह कस्मानोक्तः ।.... . अत्रोदाहरण यत्सर्व देशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभियुगपदभिसम्बध्यते तत्सर्वगतं यथाऽकाशम, अभिसम्बध्यते सर्वदेशाबस्थितैः स्वसम्बन्धि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org