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________________ १० ५५. ०२७.] भाषाटिप्पणानि । न्यायसार (१०८) में प्रसिद्ध के चौदह प्रकार सोदाहरण बतलाये गये हैं । न्यायमञ्जरी ( पृ० ६०६ ) में भी उसी ढङ्ग पर अनेक भेदों की सृष्टि का वर्णन है । माणिक्यनन्दी शब्दरचना बदलते हैं' (परी० ६. २२-२८) पर वस्तुत: वे असिद्ध के वर्णन में धर्मकीर्त्ति के ही अनुगामी हैं । प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख की टीका मार्तण्ड में ( पृ० १६१ A ) मूल सूत्र में न पाये जानेवाले प्रसिद्ध के अनेक भेदों के नाम तथा उदाहरण दिये हैं जो न्यायसारगत ही हैं। आ० हेमचन्द्र के असिद्धविषयक सूत्रों की सृष्टि न्यायबिन्दु और परीक्षामुख का अनुमरण करनेवाली है । उनकी उदाहरणमाला में भी शब्दश: न्यायसार का अनुसरण है । धर्मकीर्त्ति और माणिक्यनन्दी का अक्षरश: अनुसरण न करने के कारण वादिदेव के प्रसिद्धविषयक सामान्य लक्षण ( प्रमाणन० ६. ४६ ) में प्रा० हेमचन्द्र के सामान्य लक्षण की अपेक्षा विशेष परिष्कृतता जान पड़ती है । वादिदेव के प्रस्तुत सूत्रों की व्याख्या रत्नाकरा- 10 वतारिका में जो प्रसिद्ध के भेदों की उदाहरणमाला है वह न्यायसार और न्यायमञ्जरी के उदाहरणों का अक्षरशः सङ्कलन मात्र है । इतना अन्तर अवश्य है कि कुछ उदाहरणों में वस्तुविन्यास वादी देवसूरि का अपना है । पृ० ५५. पं० १७. सामान्यविशेषवत्त्वात् - तुलना - "सामान्यवत्त्वात् " - न्यायसार पृ० ८ । पृ० ५५. पं० २७. 'विपरीत' - जैसा प्रशस्तपाद में विरुद्ध के सामान्य स्वरूप का 15 वर्णन है विशेष भेदों का नहीं, वैसे ही न्यायसूत्र और उसके भाष्य में भी विरुद्ध का सामान्य रूप से वर्णन है, विशेष रूप से नहीं । इतना साम्य होते हुए भी सभाष्यन्यायसूत्र और प्रशस्तपाद में उदाहरण एवं प्रतिपादन का भेद? स्पष्ट है । जान पड़ता है न्यायसूत्र की और प्रशस्तपाद की विरुद्ध विषयक विचारपरम्परा एक नहीं है । न्यायप्रवेश ( पृ० ५ ) में विरुद्ध के चार भेद सोदाहरण बतलाये हैं 1 सम्भवत: 20 माठर ( का० ५ ) को भी वे ही अभिप्रेत हैं। न्यायबिन्दु ( ३.८३-८८ ) में विरुद्ध के प्रकार दो ही उदाहरणों में समाप्त किये गये हैं और तीसरे "इष्टविघातकृत्" नामक अधिक भेद होने की आशङ्का ( ३. ८६ - ९४ ) करके उसका समावेश अभिप्रेत दो भेदों में ही कर दिया गया है । इष्टविघातकृत् नाम न्यायप्रवेश में नहीं है पर उस नाम से जो उदाहरण न्यायबिन्दु ( ३.९० ) में दिया गया है वह न्यायप्रवेश ( पृ० ५ ) में वर्तमान है । 1 जान 25 पड़ता है न्यायप्रवेश में जो "परार्थाः चक्षुरादयः " यह धर्म्मविशेषविरुद्ध का उदाहरण है उसी को कोई इष्टविघातकृत् नाम से व्यवहृत करते होंगे जिसका निर्देश करके धर्मकीर्त्ति १ "सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः ।" न्यायसू० १. २. ६ । "यथा सोऽयं विकारो व्यक्तेरपैति नित्यत्वप्रतिषेधात् श्रपेतोऽप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात्, न नित्यो विकार उपपद्यते इत्येत्रं हेतु:-‘व्यक्तेरपेतापि विकारोस्ति' इत्यनेन स्वसिद्धान्तेन विरुध्यते । यदस्ति न तदात्मलाभात् प्रच्यवते, अस्तित्व चात्मलाभात् प्रच्युतिरिति विरुद्धावेतौ धर्मै न सह सम्भवत इति । सोऽयं हेतुर्य सिद्धान्तमाश्रित्य प्रवर्तते तमेव व्याहन्ति इति । ” न्यायभा० १. २. ६ । “यो ह्यनुमेयेऽविद्यमानोऽपि तत्समानजातीये सर्वस्मिन्नास्ति तद्विपरीते चास्ति स विपरीतसाधनाद्विरुद्धः यथा यस्माद्विषाणी तस्मादश्व इति ।" प्रशस्त० पृ० २३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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