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________________ ९८ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० ५४५०८ हेत्वाभास रूप दोष कहती है अगर वह सचमुच दोष हो तो उसे दूसरी परम्परा स्वीकार न करती हो। ऐसे स्थल में दूसरी परम्परा या तो उस दोष को अपने अभिप्रेत किसी हेत्वाभास में अन्तर्भावित कर देती है या पक्षाभास आदि अन्य किसी दोष में या अपने अभिप्रेत हेत्वाभास के किसी न किसी प्रकार में। B. प्रा. हेमचन्द्र ने हेत्वाभास शब्द के प्रयोग का अनौचित्य बतलाते हुए भी साधना. भास अर्थ में उस शब्द के प्रयोग का समर्थन करने में एक तीर से दो पक्षी का वेध किया है-पूर्वाचार्यो की परम्परा के अनुसरण का विवेक भी बतलाया और उनकी गलती भी दर्शाई। इसी तरह का विवेक माणिक्यनन्दी ने भी दर्शाया है। उन्होंने अपने पूज्य अकलङ्क कथित अकिञ्चित्कर हेवाभास का वर्णन तो किया; पर उन्हें जब उस हेत्वाभास के अलग 10 स्वीकार का औचित्य न दिखाई दिया तब उन्होंने एक सूत्र में इस ढङ्ग से उसका समर्थन किया कि समर्थन भी हो और उसके अलग स्वीकार का अनौचित्य भी व्यक्त हो-“लक्षण एवासी दोषो व्युत्पन्न प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वातू"-परी० ६. ३६ । पृ० ५४. पं० ८. 'प्रत्यक्षागमबाधित'-तुलना-"कालात्ययापदिष्ट: कालातीतः।"न्यायसू० १. २.६ । “यत्र च प्रत्यक्षानुमानागमविरोध: ....''स सर्वः प्रमाणतो विपरीतनिर्णयेन 15 सन्देहविशिष्ट कालमतिपतति सेोऽयं कालस्य अत्ययेन अपदिश्यमान: कालातीत इति ।" तात्पर्य० पृ. ३४७ । न्यायसार पृ०७। "हेतोः प्रयोगकालः प्रत्यक्षागमानुपहतपक्षपरिग्रह समय एव, तमतीत्य प्रयुज्यमानः प्रत्यक्षागमबाधिते विषये वर्तमान: कालात्ययापदिष्टो भवति ।" न्यायम• पृ० ६१२ । अ० २. प्रा० १. सू० १७-१६. पृ० ५४. न्यायसूत्र (१.२.८) में प्रसिद्ध का नाम 20 साध्यसम है। केवल नाम के ही विषय में न्यायसूत्र का अन्य ग्रन्थों से वैलक्षण्य नहीं है किन्तु अन्य विषय में भी। वह अन्य विषय यह है कि जब अन्य सभी ग्रन्थ असिद्ध के कम या अधिक प्रकारों का लक्षण उदाहरण सहित वर्णन करते हैं तब न्यायसूत्र और उसका भाष्य ऐसा कुछ भी न करके केवल प्रसिद्ध का सामान्य स्वरूप बतलाते हैं। प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश में प्रसिद्ध के चार प्रकारों का स्पष्ट और समानप्राय 28 वर्णन है। माठर ( का० ५ ) भी उसके चार भेदों का निर्देश करते हैं जो सम्भवत: उनकी दृष्टि में वे ही रहे होंगे। न्यायबिन्दु में धर्मकीर्ति ने प्रशस्तपादादिकथित चार प्रकारों का तो वर्णन किया ही है पर उन्होंने प्रशस्तपाद तथा न्यायप्रवेश की तरह आश्रयासिद्ध का एक उदाहरण न देकर उसके दो उदाहरण दिये हैं और इस तरह प्रसिद्ध के चौथे प्रकार आश्रया सिद्ध के भी प्रभेद कर दिये हैं। धर्मकीर्ति का वर्णन वस्तुत: प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश30 गत प्रस्तुत वर्णन का थोड़ा सा संशोधन मात्र है-न्यायबि० ३. ५८-६७ । १ "उभयासिद्धोऽन्यतरासिद्धः तद्भावासिद्धोऽनुमेयासिद्धश्चेति ।"-प्रशस्त० पृ० २३८ । “उभयासिद्धोऽन्यतरासिद्धः संदिग्धासिद्धः आश्रयासिद्धश्चेति ।"-न्यायप्र० पृ०३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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