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पृ० ५४. पं० ३.]
भाषाटिप्पणानि। .
भी उक्त तीन ही हेत्वाभासों का सूचन व संग्रह किया है। जान पड़ता है मूल में सांख्य और कणाद की हेत्वाभाससंख्या विषयक परम्परा एक ही रही है।
जैन परम्परा वस्तुत: कणाद, सांख्य और बौद्ध परम्परा के अनुसार तीन ही हेत्वा. भासों को मानती है। सिद्धसेन और वादिदेव ने ( प्रमाणन० ६. ४७ ) असिद्ध आदि तीनों का ही वर्णन किया है। प्रा. हेमचन्द्र भी उसी मार्ग के अनुगामी हैं । आ. हेमचन्द्र ने न्याय- 5 सूत्रोक्त कालातीत प्रादि दो हेत्वाभासों का निरास किया है पर प्रशस्तपाद और भासर्वज्ञकथित अनध्यवसित हेत्वाभास का निरास नहीं किया है। जैन परम्परा में भी इस जगह एक मतभेद है-वह यह कि अकलङ्क और उनके अनुगामी माणिक्यनन्दी आदि दिगम्बर तार्किकों ने चार हेत्वाभास बतलाये हैं२ जिनमें तीन तो प्रसिद्ध आदि साधारण ही हैं पर चौथा अकिश्चित्कर नामक हेत्वाभास बिलकुल नया है जिसका उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं 10 देखा जाता। परन्तु यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि जयन्त भट्ट ने अपनी न्यायमञ्जरी३ में अन्यथासिद्धापरपर्याय अप्रयोजक नामक एक नये हेत्वाभास को मानने का पूर्वपक्ष किया है । जो वस्तुत: जयन्त के पहिले कभी से चला आता हुआ जान पड़ता है। अप्रयोजक और अकिश्चित्कर इन दो शब्दों में स्पष्ट भेद होने पर भी प्रापाततः उनके अर्थ में एकता का भास होता है। परन्तु जयन्त ने अप्रयोजक का जो अर्थ बतलाया है और अकिञ्चित्कर का जो 15 अर्थ माणिक्यनन्दी के अनुयायी प्रभाचन्द्र ने ४ किया है उनमें बिलकुल अन्तर है, इससे यह कहना कठिन है कि अप्रयोजक और अकिञ्चित्कर का विचार मूल में एक है; फिर भी यह प्रश्न हो ही जाता है कि पूर्ववर्ती बौद्ध या जैन न्यायप्रन्थों में अकिश्चित्कर का नामनिर्देश नहीं तब अकलङ्क ने उसे स्थान कैसे दिया, अतएव यह सम्भव है कि अप्रयोजक या अन्यथासिद्ध माननेवाले किसी पूर्ववर्ती तार्किक अन्य के आधार पर ही अकलङ्क ने 20 अकिश्चित्कर हेत्वाभास की अपने ढंग से नई सृष्टि की हो। इस अकिञ्चित्कर हेत्वाभास का खण्डन केवल वादिदेव के सूत्र की व्याख्या स्याद्वादर० पृ० १२३०) में देखा जाता है। .
ऊपर जो हेत्वाभाससंख्या विषयक नाना परम्पराएँ दिखाई गई हैं उन सब का मत. भेद मुख्यतया संख्याविषयक है, तत्त्वविषयक नहीं। ऐसा नहीं है कि एक परम्परा जिसे अमुक
.१ "असिद्धस्वप्रतीतो यो योऽन्यथैवोपपद्यते । विरुद्धो योऽन्यथाप्यत्र युक्तोऽनैकान्तिकः स तु ॥"न्याया० का०२३।
२ "असिद्धश्चाक्षुषत्वादिः शब्दानित्यत्वसाधने। अन्यथासम्भवाभावभेदात् स बहुधा स्मृतः ॥ विरुद्धासिद्धसंदिग्धैरकिञ्चित्करविस्तरैः ।"-न्यायवि० २. १६५-६। परी० ६. २१ ।
३ "अन्ये तु अन्यथासिद्धत्वं नाम तद्भदमुदाहरन्ति यस्य हेताधर्मिणि वृत्तिर्भवन्त्यपि साध्यधर्मप्रयुक्ता भवति न, सोऽन्यथासिद्धो यथा नित्या मनःपरमाणवो म घटवदिति .......स चात्र प्रयोज्यप्रयोजकभावो नास्तीत्यत एवायमन्यथासिद्धोऽप्रयोजक इति कथ्यते। कथं पुनरस्याप्रयोजकत्वमवगतम् ?"न्यायम० पृ०६०७।
४"सिद्धे निर्णीते प्रमाणान्तरात्साध्ये प्रत्यक्षादिबाधिते च हेतुर्न किञ्चित्करोति इति अकिञ्चित्करोऽनर्थकः।"-प्रमेयक० पृ० १६३ A|
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