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________________ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० ५६. ५० ६ने अन्तर्भाव किया है। जयन्त ने (न्यायम० पृ० ६००-६०१) गौतमसूत्र की ही व्याख्या करते हुए धर्मविशेषविरुद्ध और धर्मिविशेषविरुद्ध इन दो तीर्थान्तरीय विरुद्ध भेदे का स्पष्ट खण्डन किया है जो न्यायप्रवेशवालो परम्परा का ही खण्डन जान पड़ता है। न्यायसार (पृ० ६) में विरुद्ध के भेदों का वर्णन सबसे अधिक और जटिल भी है। उसमें सपक्ष 5 के अस्तित्ववाले चार, नास्तित्ववाले चार ऐसे विरुद्ध के पाठ भेद जिन उदाहरणों के साथ हैं उन्हीं उदाहरणों के साथ वही माठ भेद प्रमाणनयतत्त्वालोक की व्याख्या में भी हैं -प्रमाणन० ६.५२-५३ । यद्यपि परीक्षामुख की व्याख्या मार्तण्ड में (पृ. १६२ A) न्यायसारवाले वे ही आठ भेद हैं तथापि किसी किसी उदाहरण में थोड़ा सा परिवर्तन हो गया है। प्रा० हेमचन्द्र ने तो प्रमाणनयतत्त्वालोक की व्याख्या की तरह अपनी वृत्ति में शब्दशः 10 न्यायसार के आठ भेद सोदाहरण बतलाकर उनमें से चार विरुद्धों को प्रसिद्ध एवं विरुद्ध दोनों नाम से व्यवहृत करने की न्यायमञ्जरी और न्यायसार की दलीलों को अपना लिया है। पृ० ५६. पं० ६. 'सति सपक्षे-तुलना-"विरुद्धभेदास्तु सति सपक्ष चत्वारो विरुद्धाः । पक्षविपक्षव्यापको यथा..."-न्यायसार पृ० ६ । प्रमेयक• पृ० १६२ A | स्याद्वादर० पृ० १०२१ । पृ० ५६.० १७ 'नियमस्य'-अनैकान्तिक हेत्वाभास के नाम के विषय में मुख्य दो 15 परम्पराएँ प्राचीन हैं। पहली गौतम की, और दूसरी कणाद की। गौतम अपने न्याय सूत्र में जिसे सव्यभिचार ( १. २. ५. ) कहते हैं उसी को कणाद अपने सूत्रों ( ३. १. १५ ) में सन्दिग्ध कहते हैं। इस नामभेद की परम्परा भी कुछ अर्थ रखती है और वह अर्थ अगले सब व्याख्याग्रन्थों से स्पष्ट हो जाता है। वह अर्थ यह है कि एक परम्परा अनैकान्तिकता को अर्थात् साध्य और उसके प्रभाव के साथ हेतु के साहचर्य को, सव्यभिचार हेत्वाभास 20 का नियामक रूप मानती है संशयजनकत्व को नहीं जब दूसरी परम्परा संशयजनकत्व को तो अनैकान्तिक हेत्वाभासता का नियामक रूप मानती है साध्य-तदभावसाहचर्य को नहीं । पहली परम्परा के अनुसार जो हेतु साध्य-तदभावसहचरित है चाहे वह संशयजनक हो या नहीं-वही सव्यभिचार या अनैकान्तिक कहलाता है। दूसरी परम्परा के अनुसार जो हेतु संशयजनक है-चाहे वह साध्य तदभावसहचरित हो या नहीं-वही अनेकान्तिक या 25 सव्यभिचार कहलाता है। अनैकान्तिकता के इस नियामकभेदवाली दो उक्त परम्पराओं के अनुसार उदाहरणों में भी अन्तर पड़ जाता है। अतएव गौतम की परम्परा में असाधारण या विरुद्धाव्यभिचारी का अनैकान्तिक हेत्वाभास में स्थान सम्भव ही नहीं क्योंकि वे दोनों साध्याभावसहचरित नहीं। उक्त सार्थकनामभेद वाली दोनों परम्परा के परस्पर भिन्न ऐसे दो दृष्टिकोण प्रागे भी चालू रहे पर उत्तरवर्ती सभी तर्कशास्त्रों में-चाहे वे वैदिक हों, 30 बौद्ध हों, या जैन-नाम तो केवल गौतमीय परम्परा का अनैकान्तिक ही जारी रहा । कणादीय परम्परा का सन्दिग्ध नाम व्यवहार में नहीं रहा। ___प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश इन दोनों का पार्वापर्य अभी सुनिश्चित नहीं अतएव यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि अमुक एक का प्रभाव दूसरे पर है, तथापि न्यायप्रवेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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