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प्रमाणमीमांसाया:
[पृ० ३४: पं० १७
. जैन तार्किक प्रत्यभिज्ञा को न तो बौद्ध के समान ज्ञानसमुच्चय मानते हैं और न नैयायिकादि की तरह बहिरिन्द्रियज प्रत्यक्ष। वे प्रत्यभिज्ञा को परोक्ष ज्ञान मानते हैं। और कहते हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान और स्मरण के बाद एक संकलनात्मक विजातीय मानस ज्ञान पैदा होता है वही प्रत्यभिज्ञा कहलाता है। प्रकलङ्कोपज्ञ ( लघी० ३. १. से) 5 प्रत्यभिज्ञा की यह व्यवस्था जो स्वरूप में जयन्त की मानसज्ञान की कल्पना के समान है वह
सभी जैन तार्किकों के द्वारा निर्विवादरूप से मान ली गई है। प्राचार्य हेमचन्द्र भी उसी व्यवस्था के अनुसार प्रत्यभिज्ञा का स्वरूप मानकर परपक्ष निराकरण और स्वपक्षसमर्थन करते हैं।
मीमांसक (श्लोकवा० सू० ४. श्लो० २३२-२३७.), नैयायिक ( न्यायसू० १. १. ६.) 10 प्रादि उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं जो साश्य-वैसदृश्य विषयक है। उनके मता.
नुसार ह्रस्वत्व, दीर्घत्व आदि विषयक अनेक सप्रतियोगिक ज्ञान ऐसे हैं जो प्रत्यक्ष ही हैं। जैन तार्किकों ने प्रथम से ही उन सब का समावेश, प्रत्यभिज्ञान को मतिज्ञान के प्रकारविशेषरूप से स्वतन्त्र प्रमाण मानकर, उसी में किया है, जो ऐकमत्य से सर्वमान्य हो गया है।
पृ० ३४. पं० १७. 'पादिग्रहणात'-तुलना-प्रमेयर० ३. १०। पृ० ३४. पं० २०. 'पयोम्बुभेदी-स्याद्वादर० पृ० ४६८.। प्रमेयक०-पृ० १००. A । पृ० ३४. पं० २५. 'यथा वा औदीच्येन-जुलना-तात्पर्य० पृ० १६८। .
पृ० ३५. पं० ५. 'येषां तु साश्यविषय-तुलना-"प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम् ।" न्यायसू० १. १.६। प्रमेयर० ३. ५।
पृ० ३५. पं० ११. “अथ साधर्म्यमुपलक्षणम्"-तुलना-“साधर्म्यग्रहणं च धर्ममात्रो20 पलक्षणमिति करभसंज्ञाप्रतिपत्तिरप्युपमानफलमेवेति नाव्याप्तिः"-तात्पर्य० पृ० २०० ।
पृ० ३५.पं० १३. 'अल्पाक्षर'-तुलना-तात्पर्य० १.१.२। पाराशर० अ० १८ । पृ० ३५. पं० १६. 'ननु 'तत्' इति'-तुलना-प्रमेयर० २. २.।
पृ० ३५. पं० २०. 'पूर्वप्रमित'-तुलना-"कुमारिलमतेन गृहीतप्राहित्वस्यासिद्धिमुद्भावयति-पूर्वप्रमित........."-तत्त्वसं० का० ४५३ ।
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पृ०. ३६. पं० २०. 'उपलम्भ-भगवान् महावीर, बुद्ध और उपनिषद् के सैकड़ों वर्ष पूर्व भी अहू ( ऋग्० २०. १३१. १०) और तर्क ( रामायण ३. २५. १२.) ये दो धातु तथा तज्जन्य रूप संस्कृत-प्राकृत भाषा में प्रचलित रहे । मागम, पिटक
और दर्शनसूत्रों में उनका प्रयोग विविध प्रसङ्गों में थोड़े-बहुत भेद के साथ विविध अर्थों में देखा जाता है। सब प्रों में सामान्य अंश एक ही है और वह यह कि
१ "उपसर्गाद्धस्व उहतेः।"-पा० सू० ७.४. २३ । "नैषा तर्केण मतिरापनेया" कठ० २.६ । २ "तका जत्थ न विज्ज -प्राचा० स० १७०। "विहिंसा वितक-मज्झिा सव्वासव "तर्काप्रतिष्ठानात्"-ब्रह्मसू०२.१.११। न्यायसू०१.१.४०।
२.६।
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