SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषाटिप्पणानि । व्याप्त है। नैयायिक आदि का भी जन्यलौकिक प्रत्यक्ष के प्रति विषयविधया अर्थ को कारण मानने का सिद्धान्त सुविदित है । पृ० ३४. पं० ११. 'दर्शनस्मरण' - प्रत्यभिज्ञा के विषय में दो बातें ऐसी हैं जिनमें दार्शनिकों का मतभेद रहा है- पहली प्रामाण्य की और दूसरी स्वरूप की । बौद्ध परम्परा प्रत्यभिज्ञा को प्रमाण नहीं मानती क्योंकि वह क्षणिकवादी होने से प्रत्यभिज्ञा का विषय माने जानेवाले स्थिरत्व को ही वास्तविक नहीं मानती । यह स्थिरत्वप्रतीति को सादृश्यमूलक मानकर भ्रान्त हो समझती है । पर बौद्धभिन्न जैन, वैदिक दोनों परम्परा के सभी दार्शनिक प्रत्यभिज्ञा को प्रमाण मानते हैं। वे प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य के आधार पर ही बौद्धसम्मत क्षणभङ्ग का निरास और नित्यत्व — स्थिरत्व – का समर्थन करते हैं। जैन परम्परा न्याय, वैशेषिक आदि वैदिक दर्शनों की तरह एकान्तं नित्यत्व किंवा कूटस्थ नित्यत्व नहीं 10 मानती तथापि वह विभिन्न पूर्वापर अवस्थाओं में ध्रुवत्व को वास्तविक रूप से मानती है प्रत एव वह भी प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य की पक्षपातिनी है । पृ० ३४. पं० ११.] 1 प्रत्यभिज्ञा के स्वरूप के सम्बन्ध में मुख्यतया तीन पक्ष हैं--बौद्ध, वैदिक और जैन 1 atara कहता है कि प्रत्यभिज्ञा नामक कोई एक ज्ञान नहीं है किन्तु स्मरण और प्रत्यक्ष ये समुचित दो ज्ञान ही प्रत्यभिज्ञा शब्द से व्यवहृत होते हैं२ । उसका 'तत्' अंश प्रतीत होने से 15 परोक्षरूप होने के कारण स्मरणप्राय है वह प्रत्यक्षमाह्य हो ही नहीं सकता, जब कि 'इदम्' अंश वर्तमान होने के कारण प्रत्यक्षप्राय है वह प्रत्यक्षप्राह्य हो ही नहीं सकता । इस तरह विषयगत परोक्षापरोक्षत्व के आधार पर दो ज्ञान के समुचय को प्रत्यभिज्ञा कहनेवाले बौद्ध पक्ष के विरुद्ध न्याय, मीमांसक प्रादि वैदिक दर्शन कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञा यह प्रत्यक्ष रूप एक ज्ञान है प्रत्यक्ष स्मरण दो नहीं । इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में वर्तमान मात्र विषयकत्व का जो नियम 20 है वह सामान्य नियम है अतएव सामग्रीविशेषदशा में वह नियम सापवाद बन जाता है । वाचस्पति मिश्र प्रत्यभिक्षा में प्रत्यक्षत्व का उपपादन करते हुए कहते हैं कि संस्कार या स्मरणरूप सहकारी के बल से बर्तमानमात्रग्राही भी इन्द्रिय, प्रतीतावस्था विशिष्ट वर्तमान को ग्रहण कर सकने के कारण, प्रत्यभिज्ञाजनक हो सकती है । जयन्त वाचस्पति के उक्त कथन का अनुसरण करने के अलावा भी एक नई युक्ति प्रदर्शित करते हैं। वे कहते हैं कि 25 स्मरण सहकृतइन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष के बाद एक मानसज्ञान होता है जो प्रत्यभिज्ञा कहलाता ४ है । जयन्त का यह कथन पिछले नैयायिकों के अलौकिकप्रत्यक्षवाद की कल्पना का बीज मालूम होता है। १ प्रमाणवा० ३. ५०१-२। तस्वसं० का० ४४७ । " '... तस्माद् द्वे एते ज्ञाने स इति स्मरणम् अयम् इत्यनुभवः " - न्यायम० पृ० ४४६ । Jain Education International ७५ २ - ३ तात्पर्य० पृ० १३१ ४ " एवं पूर्वज्ञानविशेषितस्य स्तम्भादेर्विशेषणमतीतक्षण विषय इति मानसी प्रत्यभिशा ।" न्यायम० पृ० ४६१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy