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पृ० ३६. पं० २०.]
भाषाटिप्पणानि । विचारात्मक ज्ञानव्यापार । जैमिनीय सूत्र और उसके शाबरभाष्य प्रादि१ व्याख्याअन्थों में उसी भाव का द्योतक ऊह शब्द देखा जाता है, जिसको जयन्त ने मजरी में अनुमानात्मक या शब्दात्मक प्रमाण समझकर खण्डन किया है-न्यायम० पृ० ५८८ । न्यायसूत्र ( १. १. ४० ) में तर्क का लक्षण है जिसमें ऊह शब्द भी प्रयुक्त है और उसका अर्थ यह है कि तर्कात्मक विचार स्वयं प्रमाण नहीं किन्तु प्रमाणानुकूल मनोव्यापार मात्र है। । पिछले नैयायिकों ने तर्क का अर्थ विशेष स्थिर एवं स्पष्ट किया है। और निर्णय किया है कि तर्क कोई प्रमाणात्मक ज्ञान नहीं है किन्तु व्याप्तिज्ञान में बाधक होनेवाली अप्रयोजकस्वशङ्का को निरस्त करनेवाला व्याप्यारोपपूर्वक व्यापकारोपस्वरूप आहार्य ज्ञान मात्र है जो उस व्यभिचारशङ्का को हटाकर व्याप्तिनिर्णय में सहकारी या उपयोगी हो सकता है-चिन्ता० अनु० पृ. २१०; न्याय० वृ० १. १. ४०। प्राचीन समय से ही न्याय 10 दर्शन में तर्क का स्थान प्रमाणकोटि में नहीं है। न्यायदर्शन के विकास के साथ ही तर्क के अर्थ एवं उपयोग का इतना विशदीकरण हुआ है कि इस विषय पर बड़े सूक्ष्म और सूक्ष्मतर प्रन्थ लिखे गये हैं जिसका प्रारम्भ गङ्गेश उपाध्याय से होता है।
बौद्धतार्किक ( हेतुवि० टी० लि. पृ० २५ ) भी तर्कात्मक विकल्पज्ञान को व्याप्तिज्ञानोपयोगी मानते हुए भी प्रमाण नहीं मानते। इस तरह तर्क को प्रमाणरूप मानने की मीमांसक 15 परम्परा और अप्रमाणरूप होकर भी प्रमाणानुप्राहक मानने की नैयायिक और बौद्ध परम्परा है।
जैन परम्परा में प्रमाणरूप से माने जानेवाले मतिज्ञान का द्वितीय प्रकार ईहा जो वस्तुत: गुणदोषविचारणात्मक ज्ञानव्यापार ही है उसके पर्यायरूप से ऊह और तर्क दोनों शब्दों का प्रयोग उमास्वाति ने किया है-तत्त्वार्थभा० १. १५ । जब जैन परम्परा में तार्किक पद्धति से प्रमाण के भेद और लक्षण आदि की व्यवस्था होने लगी तब सम्भवत: सर्व- 20 प्रथम प्रकलङ्क ने ही तर्क का स्वरूप, विषय, उपयोग आदि स्थिर किया ( लघी० स्ववि० ३. २.) जिसका अनुसरण पिछले सभी जैन तार्किकों ने किया है। जैन परम्परा मीमांसको की तरह तर्क या ऊह को प्रमाणात्मक ज्ञान ही मानती आई है। जैन तार्किक कहते हैं कि व्याप्तिज्ञान ही तर्क या ऊह शब्द का अर्थ है। चिरायात प्रार्यपरम्परा के अति परिचित अह या तर्क शब्द को लेकर ही अकलङ्क ने परोक्षप्रमाण के एक भेद रूप से तर्कप्रमाण स्थिर 2: किया। और वाचस्पति मिश्र आदि३ नैयायिकों ने व्याप्तिज्ञान को कहीं मानसप्रत्यक्षरूप, कहीं लौकिकप्रत्यक्षरूप, कहीं अनुमिति आदि रूप माना है उसका निरास करके जैन तार्किक व्याप्तिज्ञान को एकरूप ही मानते आये हैं वह रूप है उनकी परिभाषा के अनुसार वर्कपदप्रतिपाय। प्राचार्य हेमचन्द्र उसी पूर्वपरम्परा के समर्थक हैं।
१ "त्रिविधश्च ऊहः। मन्त्रसामसंस्कारविषयः।"-शाबरभा० ६. १.१। जैमिनीयन्या० अध्याय ६. पाद १. अधि०१।।
२ न्यायसू० १.२.१। ३ तात्पर्य० पृ० १५६-१६७। न्यायम० पृ० १२३ ।
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