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________________ पृ० ३२. पं० ६.] भाषाटिप्पणानि । 6 कहनेवाले जैनाचार्यों में सबसे पहिले सिद्धसेन ही हैं - न्याया० ३१ ॥ सिद्धसेन के ही कथन को दोहराया है । 5 देवसूरि ने आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए जो मतान्तरव्यावर्त्तक अनेक विशेषण दिये हैं (प्रमाणन० ७.५४,५५ ) उनमें एक विशेषण देहव्यापित्व यह भी है । अ० हेमचन्द्र ने जैनाभिमत आत्मा ' स्वरूप को सूत्रबद्ध करते हुए भी उस विशेषण का उपादान नहीं किया । इस विशेषणत्याग से आत्मपरिमाण के विषय में (जैसे नित्यानित्यत्व विषय में है वैसे ) कुमारिल के मत के साथ जैनमत की एकता की भ्रान्ति न हो इसलिए आ० हेमचन्द्र ने स्पष्ट ही कह दिया है कि देहव्यापित्व इष्ट है पर अन्य जैनाचार्यों की तरह सूत्र में उसका निर्देश इसलिए नहीं किया है कि वह प्रस्तुत में उपयोगी नहीं है। 1 पृ० ३२. पं० ६. 'यथाहे:- तुलना " स्यातामत्यन्तनाशेऽस्य कृतनाशाऽकृताऽऽगमौ । न त्ववस्थान्तरप्राप्तौ लोके बालयुवादिवत् ॥ २३ ॥ अवस्थान्तरभाव्येतत् फलं मम शुभाशुभम् । इति ज्ञात्वाऽनुतिष्ठश्च विजच्चेष्टते जनः ॥ २४ ॥ अनवस्थान्तरप्राप्तिदृश्यते न च कस्यचित् । अनुच्छेदात्तु नाऽन्यत्वं भोक्तुर्लोकोऽवगच्छति ॥ २५ ॥ सुखदुःखाद्यवस्थाश्च गच्छन्नपि नरो मम । चैतन्यद्रव्यसत्तादिरूपं नैव विमुञ्चति ॥ २६ ॥ दुःखिनः सुरूयवस्थायां नश्येयुः सर्व एव ते । दुःखित्वं चानुवर्तेत विनाशे विक्रियात्मके ॥ २७ ॥ तस्मादुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः । पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवत् ॥ २८ ॥ न च कर्तृत्वभोक्तृत्वे पुंसेोऽवस्थासमाश्रिते । तेनाऽवस्थावतस्तत्त्वात् कर्त्तवाप्नाति तत्फलम् ॥ २९ ॥ स्वरूपेण ह्यवस्थानामन्योन्यस्य विरोधिता । Jain Education International ७१ आ० हेमचन्द्र ने For Private & Personal Use Only 10 15 20 25 अविरुद्धस्तु सर्वासु सामान्यात्मा प्रवर्तते ।। ३० ।। " - श्लेाकवा० आत्म० । “प्रत्यक्षप्रतिसंवेद्यः कुण्डलादिषु सर्पवत् ।। " - न्यायवि० २. ११६ । www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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