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प्रमाणमीमांसाया:
[पृ० ३१. पं० ११स्थाप्यम् । तस्मादसारूप्यव्यावृत्त्या सारूप्यं ज्ञानस्य व्यवस्थापनहेतुः। अनीलबोधव्यावृत्त्याच नीलबोधरूपत्वं व्यवस्थाप्यम् ।"-न्याबि. टी. १.२१ ।
पृ० ३१. पं० ११. 'एवं सति'-तुलना-परी० ६.६८, ६६ । पृ० ३१. पं० १४. 'तथा तस्यैवात्मन:-तुलना-परी० ५.३। प्रमाणन० ६.६-११ । पृ० ३१. पं० १५. 'भेदे तु-तुलना-परी० ६. ७१ । पृ० ३१. पं० १५. 'अथ यत्रैवात्मनि'-तुलना-प्रमेयर० ६. ७१, ७२ । पृ० ३१. पं० १६. 'प्रमाणात् फलम्'-परी० ५.२ । प्रमाणप० पृ० ७६ ।
पृ० ३१. पं० २१. 'स्वपराभासी'-भारत में दार्शनिकों की चिन्ता का मुख्य और अन्तिम विषय आत्मा ही रहा है। अन्य सभी चीजें आत्मा की खोज में से ही फलित हुई 10 हैं। अतएव आत्मा के अस्तित्व तथा स्वरूप के सम्बन्ध में बिलकुल परस्परविरोधी ऐसे
अनेक मत अति चिरकाल से दर्शनशास्त्रों में पाये जाते हैं। उपनिषद् काल के पहिले ही से प्रात्मा को सर्वथा नित्य-कूटस्थ-माननेवाले दर्शन पाये जाते हैं जो औपनिषद, सांख्य आदि नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रात्मा अर्थात् चित्त या नाम को भी सर्वथा क्षणिक मानने का बौद्ध
सिद्धान्त है जो गौतम बुद्ध से तो अर्वाचीन नहीं है। इन सर्वथा नित्यत्व और सर्वथा 15 क्षणिकत्व स्वरूप दो एकान्तों के बीच होकर चलनेवाला अर्थात उक्त दो एकान्तों के समन्वय
का पुरस्कर्ता नित्यानित्यत्ववाद आत्मा के विषय में भी भगवान महावीर के द्वारा स्पष्टतया आगमों में प्रतिपादित (भग० श० ७. उ० २. देखा जाता है। इस जैनाभिमत आत्मनित्या. नित्यत्ववाद का समर्थन मीमांसकधुरीण कुमारिल ने (श्लोकवा० अात्म० श्लो० २८ से) भी बड़ी
स्पष्टता एवं तार्किकता से किया है जैसा कि जैनतार्किकप्रन्थों में भी देखा जाता है। 20 इस बारे में यद्यपि प्रा. हेमचन्द्र ने जैनमत की पुष्टि में तत्त्वसंग्रहगत श्लोकों का ही अक्षरश:
अवतरण दिया है तथापि वे श्लोक वस्तुत: कुमारिल के श्लोकवार्तिकगत श्लोकों के ही सार मात्र का निर्देशक होने से मीमांसकमत के ही द्योतक हैं।
ज्ञान एवं आत्मा में स्वावभासित्व-परावभासित्व विषयक विचार के बीज तो अतिआगमकालीन साहित्य में भी पाये जाते हैं पर इन विचारों का स्पष्टीकरण एवं 25 समर्थन तो विशेषकर तर्कयुग में ही हुआ है। परोक्ष ज्ञानवादी कुमारिल आदि मीमांसक के
मतानुसार ही ज्ञान और उससे अभिन्न अात्मा इन दोनों का परोक्षत्व अर्थात् मात्र परावभासित्व सिद्ध होता है। योगाचार बौद्ध के मतानुसार विज्ञानबाह्य किसी चीज़ का अस्तित्व न होने से और विज्ञान स्वसंविदित होने से ज्ञान और तद्रूप प्रात्मा का मात्र स्वावभासित्व फलित होता है। इस बारे में भी जैनदर्शन ने अपनी अनेकान्त प्रकृति के अनु30 सार ही अपना मत स्थिर किया है। ज्ञान एवं आत्मा दोनों को स्पष्ट रूप से स्व-पराभासी
१ "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । तमेव भान्तमनुभाति सर्वम् ।।"-कठो० ५.१५ ।
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