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पृ० २८. पं० २.]
भाषाटिप्पणानि । स्थिर अन्वयांश को मानता है ( तत्त्वार्थ० ५. २६), जिसे बौद्धदर्शन नहीं मानता, सन्तान के खण्डन के विषय में प्रा० हेमचन्द्र ने सन्तानखण्डनकारी पूर्ववर्ती वैदिक और जैन परंपरा का अनुसरण किया है ।
पृ० २०. पं० १७. 'सत्तायोगात-तुलना-लघो० ४. १० । अन्ययो० ७.८ । . पृ० २८. पं० २. 'न चासो'-एक ही वस्तु को यथासम्भव अनेक दृष्टियों से विचारना। और तदनुसार उसका प्रतिपादन करना यह अनेकान्तदृष्टि या अनेकान्तवाद है। इस भाव के सूचक अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, विभज्यवाद आदि शब्द प्रसिद्ध हैं। ये शब्द बुद्धमहावीर के समकालीन और उनके कुछ पूर्ववर्ती साहित्य तक में संस्कृत-प्राकृत भाषाओं में करीब-करीब उसी भाव में प्रयुक्त पाये जाते हैं२ । भगवान् महावीर के समकालीन बौद्ध और वैदिक दर्शनों में तथा उनके कुछ पूर्ववर्ती वैदिक दर्शनों तक में हम देखते हैं कि वे दर्शन 10 अपने-अपने अभिमत सिद्धान्त का केवल एक ही दृष्टि से विचार नहीं करते, वे भी-यथासम्भव विविध दृष्टियों से अपने-अपने सिद्धान्त का स्थापन करते हैं३ । ऐसी दशा में यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि भगवान महावीर जैसे आध्यात्मिक और गम्भीर पुरुष ने अपने ही को अनेकान्तवादी या विभज्यवादी कैसे कहा ?। अथवा यों कहिए कि जैनदर्शन ही अनेकान्तवादी या विभज्यवादी कैसे समझा जाने लगा ?। इसका खुलासा यह जान पड़ता है कि 15 बेशक प्रसिद्ध वैदिक बौद्ध आदि दर्शनों में भी तत्त्व का चिन्तन अनेक दृष्टियों से होता था फिर भी महावीर का यह दृढ़ मन्तव्य था और सच भी था कि बौद्ध सिद्धान्त में तात्त्विक रूप से " क्षणिकत्व को ही स्थान है उसमें नित्यत्व उपचरित और अवास्तविकरूप से माना जाता है। . इसी तरह औपनिषदादि सिद्धान्तों में प्रात्मा आदि तात्त्विकरूप से नित्य ही हैं, अनित्यत्व या . परिणाममात्र औपचारिक या अवास्तविकरूप से माना जाता है, जब कि महावीर आत्मा 20 आदि पदार्थों को तात्त्विकरूप से नित्य-अनित्य उभय स्वरूप मानकर उभय अंश को समान रूप से वास्तविक ही बतलाते थे। बहुत सम्भव है इसी दृष्टिभेद को लेकर भगवान महावीर ने अपने दर्शन को अनेकान्त कहा और औरों को एकान्त। महावीर के उपदिष्ट प्राचीन उपदेशों में हम देखते हैं कि आत्मा, लोक प्रादि के सम्बन्ध में उनको द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक तथा शाश्वत-प्रशाश्वत दोनों दृष्टियाँ समप्रधान४ हैं; कोई एक वास्तविक और दूसरी अवास्तविक 25 नहीं है। यही कारण है कि इसके बाद के प्राज तक के जैन विचारविकास में इस बारे में कोई परिवर्तन नहीं देखा जाता। जान पड़ता है किसी एक तत्त्व की निरूपक विविध दृष्टियों के समप्राधान्य और वर्गीकरण की ओर भगवान महावीर का खास झुकाव था इसी कारण
१ न्यायम० पृ०४६४। अष्टश० अष्टस०पृ०१६५। २ सूत्रकृ०१. १४.१६-२२। मज्झिम० २.५. ६ ।
३ महावग्ग ३. ६. ४.८ । “एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति"-ऋग्वेद अष्ट. २. अ० ३. व० २३. मं०४६।
४ भग०श०१. उ०३; श०६. उ०३३॥
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