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________________ प्रमाणमीमांसाया: [ पृ० २८. पं० २-- उनके उपदेशों में नय निक्षेप आदि रूप से दृष्टियों का विभाजन और संग्रह पाया जाता है, चाहे वह प्राचीन ढङ्ग से ही क्यों न हो, जैसा कि जैनेतर दर्शन साहित्य में नहीं है और जिसके आधार पर उत्तरकालीन जैन साहित्य में नयवाद, अनेकान्तवाद नामक स्वतन्त्र साहित्य का प्रकार हो विकसित हुआ। प्राचीन जैन आगमों के देखने से जान पड़ता है कि उन दिनों प्रास्मा, लोक ( भग० श० २. उ० १; श० ६. उ० ३३; श० १२. उ० १०.) आदि तात्त्विक पदार्थ ही नय या अनेकान्त की विचारसरणी के मुख्यतया विषय रहे प्राचार नहीं। बौद्ध शास्त्रों के देखने से जान पड़ता है कि बुद्ध की अनेकान्त दृष्टि मध्यमप्रतिपदारूप से ( संयुत्त० ५५. २. २.) मुख्यतया प्राचार विषयक ही थी ( मज्झिम० १. १. ३.)। यद्यपि उत्तरकालीन जैनसाहित्य 10 में अनेकान्त दृष्टि का उपयोग अहिंसा, सत्य आदि प्राचार के विषय में भी हुआ है तथापि अाज तक के नयवाद एवं अनेकान्तवाद विषयक ग्रन्थों में उसकी मूल प्रकृति का स्पष्टदर्शन होता है क्योंकि नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, सामान्य, विशेष, अभिलाप्यत्व, मनमिलाप्यत्व इत्यादि तात्त्विक चिन्तन में ही वह वाद समाप्त हो जाता है। अनेकान्त दृष्टि से एक वस्तु को नित्यानित्य आदि द्विरूप माननेवाले केवल जैन ही नहीं बल्कि मीमांसक और 15 सांख्य आदि भी थे। और प्रतिवादी बौद्ध आदि स्याद्वाद का खण्डन करते समय जैनों के साथ-साथ मीमांसक, सांख्य आदि के भी तात्त्विक मन्तव्य का खण्डन करते थे। फिर भी १ "णामं ठवणा दविये खित्ते काले य। वयणभावे य एसो अणुप्रोगस्स उणिक्खेवो होई सत्तविहो॥" आव०नि० १३२। “णेगमसंगहववहारउज्जुसुए चेव हाइ बोद्धव्वे । सहयसमभिरूढे एवंभूए य मूलणया ॥"-आव०नि० गा०७५४ । स्था०७। २ न य घायउ त्ति हिंसो नाघायंतो त्ति निच्छियमहिसो। न विरलजीवमहिंसा न य जीवघणति तो हिंसो ॥ अहणतो वि हु हिंसा दुटुत्तणओ मओ अहिमरो व ॥ बाहिंतो न वि हिंसा सुद्धत्तणश्रो जहा विज्जो॥ असुभो जो परिणामो सा हिंसा सो उ बाहिरनिमित्तं । को वि अवेक्खेज्जन वा जम्हाऽणेगंतियं बज्झ ॥"-विशेषा० गा० १७६३, १७६४, १७६६। आप्तमी० का० ६२-६५। पुरुषार्थ का० ४४-५८। . . 'न चैवं जैनप्रक्रियाविदा वदन्ति तैः क्षुद्रमहत्सत्त्ववधसादृश्यवसादृश्ययोरनेकान्तस्यैवाभ्युपगमात् । तदुक्त सूत्रकृतांगे-जे केह खुद्दगा पाणा अदुवा सन्ति महालया। सरिसं तेहि वेरन्ति असरिसन्ति य णो वए ॥ एतेहिं दोहि ठाणेहिं ववहारो ण विज्जई । एतेहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं तु जाणए। ."इत्यादि-यशोवि० धर्मपरी० पृ० १८३ से।। ३ "तस्मादुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः । पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवत् ॥ न चावस्थान्तरोत्पादे पूर्वाऽत्यन्तं विनश्यति । उत्तरानुगुणत्वात्तु सामान्यात्मनि लीयते ॥"-श्लोकवा० आत्म० श्लो० २८, ३०। “एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याताः ॥"-योगसू० ३. १३ । योगभा०३.१३। पात० महा० पृ०५८। भर्तृप्रपञ्च जो वेदान्ती था उसका मत अनेकान्त नाम से प्रसिद्ध था क्योंकि वह भेदाभेद व ज्ञानकर्मसमुच्चयवादी रहा-अच्युत वर्ष ३. अं०४. पृ०८-११ । ४'कल्पनगरचितस्यैव वैचित्र्यस्योपवर्णने। को नामातिशयः प्रोक्तो विप्रनिर्ग्रन्थकापिलैः॥"तत्त्वसं० का० १७७६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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