________________
६०
प्रमाणमीमांसायाः
किया । जहाँ तक मालूम है जैन परंपरा में सबसे पहिले इस कसौटी के द्वारा क्षणिकत्व का निरास करनेवाले प्रकलङ्क १ हैं । उन्होंने उस कसौटी के द्वारा वैदिकसम्मत केवल नित्यत्ववाद का खण्डन तो वैसे ही किया जैसा बौद्धों ने । और उसी कसौटी के द्वारा क्षणिकत्व वाद का खण्डन भी वैसे ही किया जैसा भदन्त योगसेन और जयन्त ने किया है। यह बात 5 स्मरण रखने योग्य है कि नित्यत्व या क्षणिकत्वादि वादों के खण्डन-मण्डन में विविध विकल्प के साथ अर्थक्रियाकारित्व की कसौटी का प्रवेश तर्कयुग में हुआ तब भी उक्त वादों के खण्डनमण्डन में काम लाई गई प्राचीन बन्धमोक्षव्यवस्था आदि कसौटी का उपयोग बिलकुल शून्य नहीं हुआ, वह गौणमात्र अवश्य हो गया ।
20
एक ही वस्तु की द्रव्य पर्यायरूप से या सदसद् एवं नित्यानित्यादि रूप से जैन 10 एवं जैमिनीय आदि दर्शनसम्मत द्विरूपता का बौद्धों ने जो खण्डन किया ( तत्त्वसं० का० २२२, ३११, ३१२.), उसका जवाब बैद्धों की ही विकल्पजालजटिल प्रक्रियाकारित्ववालो दलील से देना अकलङ्क आदि जैनाचार्यों ने शुरू किया जिसका अनुसरण पिछले सभी जैन तार्किकों ने किया है । ० हेमचन्द्र भी उसी मार्ग का अवलम्बन करके इस जगह पहिले केवल नित्यत्ववाद का खण्डन बौद्धों के ही शब्दों में करते हैं और केवलक्षणिकत्ववाद का 15 खण्डन भी भदन्त योगसेन या जयन्त आदि के शब्दों में करते हैं और साथ ही जैनदर्शनसम्मत द्रव्यपर्यायवाद के समर्थन के वास्ते उसी कसौटी का उपयोग करके कहते हैं कि अर्थक्रियाकारित्व जैनवाद पक्ष में ही घट सकता है ।
पृ० २५. पं० २७. 'समर्थोऽपि ' - तुलना - भामती २.२.२६ ।
पृ० २६. पं० २०. ' पर्यायैकान्त' - तुलना-तत्त्वसं० का० ४२८-४३४ |
पृ० २६, पं० २५, ‘सन्तानस्य - बौद्धदर्शन क्षणिकवादी होने से किसी भी वस्तु को एक क्षण से अधिक स्थिर नहीं मानता । वह कार्यकारणभावरूप से प्रवृत्त क्षणिक भावों के अविच्छिन्न प्रवाह को संतान कहकर उसके द्वारा एकत्व - स्थिरत्वादि की प्रतीति घटाता है । पर वह सन्तान नामक किसी चीज़ को क्षणिकभिन्न पारमार्थिक सत्य रूप नहीं मानता । उसके मतानुसार जैसे अनेक वृक्षों के वास्ते वन शब्द व्यवहार के सुभीते की दृष्टि से सके52 तिक है, वैसे ही सन्तान शब्द भी अनेक भिन्न-भिन्न क्षणिक भावों के वास्ते ही सांकेतिक है। इस भाव का प्रतिपादन खुद बौद्ध विद्वानों ने ही अपने-अपने पाली तथा संस्कृत ग्रन्थों में किया है - विसुद्ध ० ० ५८५, बोधिचर्या० पृ० ३३४; तत्त्वसं० का० १८७७ ।
बौद्धसम्मत क्षणिकवाद का विरोध सभी वैदिक दर्शनों और जैनदर्शन ने भी किया है। उन्होंने किसी न किसी प्रकार से स्थिरत्व सिद्ध करने के वास्ते बौद्धसम्मत सन्तान पद के अर्थ 30 की यथार्थ समालोचना की है। जैनदर्शन को क्षणवाद इष्ट होने पर भी बौद्धदर्शन की तरह केवल काल्पनिक सन्तान इष्ट नहीं है । वह दो या अधिक क्षणों के बीच एक वास्तविक
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ॥"
१ " अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः । लघी० २.१ ।
[ पृ० २५.
Jain Education International
पं० २७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org