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भाषाटिप्पणानि ।
१०२३. पं० १६.]
जो बाध
की कृति रूप से माने जानेवाले न्यायावतार में जैन परम्परानुसारी प्रमाण लक्षण वर्जितपद - ( न्याया० १) है वह अक्षपाद के ( न्यायसू० १. १. ४ ) प्रत्यक्ष लक्षणगत अव्यभिचारिपद का प्रतिबिम्ब है या कुमारिल कर्तृ के समझे जानेवाले 'तत्रापूर्वार्थविज्ञानं प्रमाणं बाधवर्जितम्' लक्षणगत बाधवर्जित पद की अनुकृति है या धर्मकीर्त्तीय (न्यायवि० १. ४) अभ्रान्तपद का रूपान्तर है या स्वयं दिवाकर का मौलिक उद्भावन है यह एक विचारणीय प्रश्न है। 6 जो कुछ हो पर यह तो निश्चित ही है कि प्रा० हेमचन्द्र का बौद्ध प्रत्यक्षलक्षण विषयक खण्डन धर्मकीर्तीय परम्परा को उद्देश में रखकर ही है, दिङ्नागीय परम्परा को उद्द ेश में रखकर नहीं ।
पृ० २३. पं० ८. 'अभिलाप' - बौद्ध लक्षणगत कल्पनापोढ पद स्थित कल्पना शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में खुद बौद्ध तार्किकों में अनेक भिन्न-भिन्न मत थे जिनका कुछ खयाल शान्तरक्षित ( तत्त्वसं ० का ० १२१४ से ) की इससे सम्बन्ध रखनेवाली विस्तृत चर्चा 10 से आ सकता है, एवं अनेक वैदिक और जैन तार्किक जिन्होंने बौद्ध-पक्ष का खण्डन किया है उनके विस्तृत ऊहापोहात्मक खण्डन ग्रन्थ से भी कल्पनाशब्द के माने जानेवाले अनेक अर्थों का पता चलता है । ख़ासकर जब हम केवल खण्डनप्रधान तत्वोपप्लव ग्रन्थ ( पृ० ४१. ) देखते हैं तब तो कल्पना शब्द के प्रचलित और सम्भवित करीब-करीब सभी या तद्विषयक मतों का एक बड़ा भारी संग्रह हमारे सामने उपस्थित होता है।
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ऐसा होने पर भी प्रा० हेमचन्द्र ने तो सिर्फ़ धर्मकीर्त्ति अभिमत ( न्यायवि० १.५ ) कल्पना स्वरूप का — जिसका स्वीकार और समर्थन शान्तरक्षित ने भी ( तत्त्वसं० का० १२१४ ) किया है— ही उल्लेख अपने खण्डन ग्रन्थ में किया है अन्य कल्पनास्वरूप का नहीं ।
पृ०. २३. पं० १३. 'निर्विकल्पोत्तरकाल' - तत्त्वसं ० का० १३०६ ।
पृ०. २३. पं० १६. 'जैमिनीयास्तु' - मीमांसादर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण के स्वरूप का 20 निर्देश सर्वप्रथम जैमिनीय ( १. १. ४) सूत्र में ही मिलता है । इस सूत्र के ऊपर शावर भाष्य के अलावा अन्य भी व्याख्याएँ और वृत्तियाँ थीं। उनमें से भवदास की व्याख्या इस सूत्र को प्रत्यक्ष लक्षण का विधायक माननेवाली थी - श्ला० न्याय० प्रत्यक्ष० श्लो० १ । दूसरी कोई व्याख्या इस सूत्र को विधायक नहीं पर अनुवादक माननेवाली थी - श्लेाकवा० प्रत्यक्ष० श्ला० १६ । कोई वृत्ति ऐसी भी थी ( शावर भा० १. १. ५ ) जो इस सूत्र के शाब्दिक विन्यास 25 में मतभेद रखकर पाठान्तर माननेवाली थी अर्थात् सूत्र में जो सत् और तत् शब्द का क्रमिक स्थान है उसके बदले तत् और सत् शब्द का व्यत्यय मानती थी ।
कुमारिल ने इस सूत्र को लक्षण का विधान या स्वतन्त्र अनुवादरूप माननेवाले पूर्वमतों का निरास करके अपने अनोखे ढङ्ग से अन्त में उस सूत्र को अनुवादरूप ही स्थापित किया है और साथ ही उस पाठान्तर माननेवाले मत का भी निरास किया है ( श्लोकवा ० 30
१ न्यायवा० पृ० ४१ । तात्पर्य० पृ० १५३ । कंदली पृ० १६१ । न्यायम० पृ० ६२-६५ । तत्वार्थश्लो० पृ० १८५ । प्रमेयक० पृ० १८. B. I
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