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प्रमाणमीमांसायाः
[पृ० २३. पं० २१प्रत्यक्ष० श्ला० १-३६ ) जैसा कि प्रभाकर ने अपने बृहती ग्रन्थ में। प्रत्यक्ष लक्षण परक प्रस्तुत जैमिनीय सूत्र का खण्डन मीमांसकभिन्न वैदिक, बौद्ध और जैन सभी तार्किकों ने किया है। बौद्ध परम्परा में सबसे प्रथम खण्डन करनेवाले दिङ्नाग (प्रमाणसमु० १. ३७ )
जान पड़ते हैं। उसी का अनुसरण शान्तरक्षित आदि ने किया है। वैदिक परम्परा में 5 प्रथम खण्डन करनेवाले उद्योतकर ही ( न्यायवा० पृ० ४३ ) जान पड़ते हैं। वाचस्पति तो उद्योतकर के ही टोकाकार हैं (तात्पर्य० पृ० १५५ ) पर जयन्त ने ( न्यायम० पृ० १०० ) इसके खण्डन में विस्तार और स्वतन्त्रता से काम लिया है। जैन परम्परा में इसके खण्डनकार सर्वप्रथम अकलङ्क या विद्यानन्द ( तत्त्वार्थश्ला० पृ० १८७ श्लो० ३७) जान पड़ते हैं ।
अभयदेव ( सन्मतिटी०पृ० ५३४ ) आदि ने उन्हीं का अनुगमन किया है। प्रा० हेमचन्द्र ने 10 अपने पूर्ववर्ती जैन तार्किकों का इस जैमिनीय सूत्र के खण्डन में जो अनुसरण किया है वह
जयन्त के मजरीगत ( पृ० १०० ) खण्डन भाग का ही प्रतिबिम्ब मात्र है जैसा कि अन्य जैन तार्किक ग्रन्थों ( स्याद्वादर० पृ० ३८१ ) में है।
: खण्डन करते समय आ० हेमचन्द्र ने कुमारिल-सम्मत अनुवादभङ्गी का निर्देश किया है और उस व्यत्ययवाले पाठान्तर का भी।
पृ०. २३. पं० २१. 'अत्र संशयविपर्यय'-श्लोकवा० प्रत्यक्ष० श्ला० १० ।
पृ०. २३. पं० २२. 'अथ सत्संप्रयोग इति सता'-"भवदासेन हि सता सम्प्रयोग इति उक्तम्"-श्लो० न्याय० प्रत्यक्ष० श्लो० ३६ |
पृ०. २३. पं० २३. 'अथ सति सम्प्रयोग'-शाबरभा० १. १. ४ ।
पृ०. २४. पं० १३. 'श्रोत्रादिवृत्ति'-सांख्य परम्परा में प्रत्यक्ष लक्षण के मुख्य तीन 20 प्रकार हैं। पहिला प्रकार विन्ध्यवासी के लक्षण का है जिसे वाचस्पति ने वार्षगण्य के
नाम से निर्दिष्ट किया है-तात्पर्य० पृ० १५५ । दूसरा प्रकार ईश्वरकृष्ण के लक्षण का ( सांख्यका० ५) और तीसरा सांख्यसूत्रगत ( सांख्यसू० १.८९ ) लक्षण का है ।
__ बौद्धों, जैनों और नैयायिकों ने सांख्य के प्रत्यक्ष लक्षण का खण्डन किया है। ध्यान रखने की बात यह है कि विन्ध्यवासी के लक्षण का खण्डन तो सभी ने किया है पर 25 ईश्वरकृष्ण जैसे प्राचीन सांख्याचार्य के लक्षण का खण्डन सिर्फ जयन्त ( पृ० ११६ ) ही ने किया है पर सांख्यसूत्रगत लक्षण का खण्डन तो किसी ने भी नहीं किया है।
बौद्धों में प्रथम खण्डनकार दिङ्नाग (प्रमाणसमु० १. २७), नैयायिकों में प्रथम खण्डनकार उद्योतकर ( न्यायवा० पृ० ४३ ) और जैनों में प्रथम खण्डनकार अकलङ्क (न्यायवि० १. १६५)
ही जान पड़ते हैं। 30
" प्रा. हेमचन्द्र ने सांख्य के लक्षण खण्डन में पूर्वाचार्यों का अनुसरण किया है पर उनका खण्डन खासकर जयन्तकृत ( न्यायम० पृ० १०६ ) खण्डनानुसारी है। जयन्तं ने ही
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