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प्रमाणमीमांसायाः
[पृ० २३. पं०५के अनुसार पाँचों बहिरिन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं। बौद्धदर्शन बहिरिन्द्रियों में प्राण, रसन, स्पर्शन तीनों को ही प्राप्यकारी मानता है, चक्षुः-श्रोत्र को नहीं-"अप्राप्तान्यक्षिमन:श्रोत्राणि त्रयमन्यथा"-अभिधर्म० २. ४३। जैनदर्शन ( श्राव० नि० ५। तत्त्वार्थ सू० १. १६ ) सिर्फ चक्षु के सिवाय चार बहिरिन्द्रियों को ही प्राप्यकारी मानता है।
अन्तरिन्द्रिय मन को तो सिर्फ सांख्य (योगभा० १.७) तथा वेदान्त ही प्राप्यकारी मानते हैं। बाकी के सभी वैदिक दर्शन तथा बौद्ध और जैनदर्शन भी उसे अप्राप्यकारी ही मानते हैं।
यह प्राप्याप्राप्यकारित्व की चर्चा करीब दो हज़ार वर्ष के पहिले से प्रारम्भ हुई जान पड़ती है। फिर क्रमश: वह उत्तरोत्तर विस्तृत होते होते जटिल एवं मनोरजक भी बन गई है।
पृ० २३. पं० ५. 'अथ प्राप्पकारि'-न्यायवा० पृ० ३६ । न्यायम० पृ० ७३ ।
पृ० २३. पं० ८. 'सौगतास्तु'-बौद्ध न्यायशास्त्र में प्रत्यक्ष लक्षण की दो परम्पराएं देखी जाती हैं—पहली अभ्रान्तपद रहित और दूसरी अभ्रान्तपद सहित । पहली परम्परा का पुरस्कर्ता दिङ्नाग और दूसरी का धर्मकीर्ति है। प्रमाणसमुच्चय ( १. ३ ) और न्यायप्रवेश में (पृ० ७) पहली परम्परा के अनुसार लक्षण और व्याख्यान है। न्यायबिन्दु ( १. ४)
और उसकी धर्मोत्तरीय प्रादि वृत्ति में दूसरी परम्परा के अनुसार लक्षण एवं व्याख्यान है। 15 शान्तरक्षित ने तत्वसंग्रह में (का० १२१४) धर्मकीर्ति की दूसरी परम्परा का ही समर्थन किया
है। जान पड़ता है शान्तरक्षित के समय तक बौद्ध तार्किकों में दो पक्ष स्पष्टरूप से हो गये थे जिनमें से एक पक्ष अभ्रान्तपद के सिवाय ही प्रत्यक्ष का पूर्ण लक्षण मानकर पीत शङ्खादि भ्रान्त ज्ञानों में भी ( तत्त्वसं ० का० १३२४ से ) दिङ्नाग कथित प्रमाण लक्षण-घटाने
का प्रयत्न करता था। 20 उस पक्ष को जवाब देते हुए दिङ्नाग के मत का तात्पर्य शान्तरक्षित ने इस प्रकार
से बतलाया है कि जिससे दिङ्नाग के अभ्रान्तपद रहित लक्षणवाक्य का समर्थन भी हो और अभ्रान्तपद सहित धर्मकीर्तीय परम्परा का वास्तविकत्व भी बना रहे। शान्तरक्षित
और उनके शिष्य कमलशील दोनों की दृष्टि में दिङ्नाग तथा धर्मकीर्ति का समान स्थान था। __ इसी से उन्होंने दोनों विरोधी बौद्ध तार्किक पक्षों का समन्वय करने का प्रयत्न किया। 25 बौद्धतर तर्क ग्रन्थों में उक्त दोनों बौद्ध परम्पराओं का खण्डन देखा जाता है। भामह
के काव्यालङ्कार (५. ६. पृ० ३२ ) और उद्योतकर के न्यायवार्तिक में ( १. १. ४. पृ० ४१ ) दिङ्नागीय प्रत्यक्ष लक्षण का ही उल्लेख पाया जाता है जब कि उद्योतकर के बाद के वाचस्पति ( तात्पर्य० पृ० १५४ ), जयन्त ( मञ्जरी पृ० ५२ ), श्रीधर ( कन्दली पृ० १६० ) और शालिकनाथ
(प्रकरणप० पृ० ४७ ) आदि सभी प्रसिद्ध वैदिक विद्वानों की कृतियों में धर्मकीर्तीय प्रत्यक्ष 30 लक्षण का पूर्वपक्ष रूप से उल्लेख है।
जैन आचार्यों ने जो बौद्धसम्मत प्रत्यक्ष लक्षण का खण्डन किया है उसमें दिङ्नागीय और धर्मकीर्तीय दोनों लक्षणों का निर्देश एवं प्रतिवाद पाया जाता है। सिद्धसेन दिवाकर
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