SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृ० २३. पं० ४.] भाषाटिप्पणानि। लक्षण सम्बन्धी परमतों का प्रधान रूप से खण्डन करनेवाला जैन तार्किकों में सर्वप्रथम अक. लङ्क ही है-न्यायवि० सिद्धिवि० आदि। उत्तरवर्ती दिगम्बर श्वेताम्बर सभी तार्किको ने अकलङ्कअवलम्बित खण्डनमार्ग को अपनाकर अपने-अपने प्रमाणविषयक लक्षणग्रन्थों में बौद्ध, वैदिकसम्मत लक्षणों का विस्तार के साथ खण्डन किया है। प्रा० हेमचन्द्र ने इसी प्रथा का अवलम्बन करके यहाँ न्याय, बौद्ध, मीमांसा और सांख्यदर्शन-सम्मत प्रत्यक्ष के लक्षणों का 5 पूर्व परम्परा के अनुसार ही खण्डन किया है। पृ०. २२. पं० २४. 'व्याख्यावमुल्येन'-वाचस्पति मिश्र और उनके गुरु त्रिलोचन के पहले न्यायसूत्र के व्याख्याकार रूप से वात्स्यायन और उद्योतकर दो ही प्रसिद्ध हैं। उनमें से वात्स्यायन ने न्यायसूत्र ( १.१.३ ) के भाष्य में प्रत्यक्ष प्रमाणरूप से सन्निकर्ष२ का भी स्पष्ट कथन किया है जैसा कि वाचस्पति मिश्र को न्यायसूत्र (१.१.४) की अपनी व्याख्या में अभिप्रेत 10 है। इसी तरह उद्योतकर ने भी न्यायसूत्र ( १.१.३ ) के वार्तिक में (पृ. २६ ) भाष्य का अनुगमन करके सन्निकर्ष और ज्ञान दोनों को ही प्रत्यक्ष प्रमाण मानकर इसका सबल समर्थन किया है। वाचस्पति का भी न्यायसूत्र (१.१.४) की व्याख्या ( पृ० १०८ ) का वही तात्पर्य है। इस तरह जब वाचस्पति का तात्पर्य वात्स्यायन और उद्योतकर की व्याख्या से भिन्न नहीं है तब प्राचार्य हेमचन्द्र का 'पूर्वाचार्यकृतव्याख्यावैमुख्येन' यह कथन वाचस्पति के विषय में 15 सङ्गत कैसे हो सकता है यह प्रश्न है। इसका उत्तर केवल इतना ही है कि न्यायसूत्र ( १.१.४ ) की वात्स्यायन और उद्योतकरकृत व्याख्या सीधी है। उसमें 'यत:' आदि किसी पद का प्रध्याहार नहीं किया गया है जैसा कि वाचस्पति मिश्र ने उसी सूत्र की व्याख्या में किया है। तात्पर्य में भेद न होने पर भी पूर्वाचार्य के व्याख्यानों में 'यत:' पद के अध्याहार का प्रभाव और वाचस्पति के व्याख्यान में 'यत: पद के अध्याहार का अस्तित्व देखकर ही 20 प्राचार्य हेमचन्द्र ने वाचस्पति के विषय में 'पूर्वाचार्यकृतव्याख्यावैमुख्येन' कहा है। - पृ०. २२. पं० २५. 'यतःशब्दा-तात्पर्य० पृ० १०८, १२५ । न्यायम० पृ० १२, ६६ । पृ०. २३. पं० ४. 'अप्राप्यकारित्वात'- इन्द्रियों का अपने अपने विषय के साथ सनिकर्ष होने पर ही प्रत्यक्षज्ञान उत्पन्न होता है, इसमें किसी का मतभेद नहीं। पर सन्निकर्ष के स्वरूप में थोड़ासा मतभेद है जिसके आधार पर प्राप्याप्राप्यकारित्व का एक वाद 25 खड़ा हुआ है और सभी दार्शनिकों की चर्चा का विषय बन गया है। ___ सांख्य ( सांख्यसू. १.८७), न्याय (न्यायसू० ३. १. ३३-५३ ), वैशेषिक ( कन्दली पृ० २३), जैमिनीय ( शाबरभा० १. १. १३ ) आदि सभी वैदिक दर्शन अपनी अपनी प्रक्रिया १ "त्रिलोचनगुरून्नीतमार्गानुगमनोन्मुखैः। यथामानं यथावस्तु व्याख्यातमिदमीदृशम् ॥"तात्पर्य० पृ० १३३। ___ २“अक्षस्थाक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम्। वृत्तिस्तु संनिकों ज्ञानं वा, यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमितिः, यदा ज्ञानं सदा हानोपादाकोपेक्षाबुद्धयः फलम् ।"-न्यायभा० १.१.३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy