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प्रमाणमीमांसाया:
[पृ० २२. पं० २०है। जिनभद्रीय परम्परा का स्वीकार याकिनीसूनु हरिभद्र ने किया ( आव. नि० हारि० ३) पौर वादी देवसूरि ने उसी परम्परा के प्राधार पर सूत्र ( प्रमाणन० २. १० ) रचकर उसके व्याख्यान में दिगम्बराचार्य विद्यानन्द और अनन्तवीर्य का नाम लेकर उनके मत का निरसन करके जिनभद्रीय परम्परा का सयुक्तिक समर्थन किया-स्याद्वादर० २.१०।। __ यद्यपि प्रा. हेमचन्द्र वादी देवसूरि के समकालीन और उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ स्याद्वादरत्नाकर के द्रष्टा हैं एवं जिनभद्र, हरिभद्र और देवसूरि तीनों के अनुगामी भी हैं, तथापि वे धारणा के लक्षणसूत्र में तथा उसके व्याख्यान में दिगम्बराचार्य अकलङ्क और विद्यानन्द प्रादि का शब्दश: अनुसरण करते हैं और अपने पूज्य वृद्ध जिनभद्र आदि के मन्तव्य का
खण्डन न करके केवल उसका आदरपूर्वक समन्वय करते हैं। अपने पूज्य श्वेताम्बरीय 10 देवसूरि ने जिन विद्यानन्द आदि के मत का खण्डन किया है उसी मत को अपनाकर प्रा. हेमचन्द्र ने सम्प्रदायनिरपेक्ष तार्किकता का परिचय कराया है।
पृ०. २२. पं० २०. 'सौगतैः-तुलना-प्रमाणवा० ३.२०८ से। पृ०. २२. पं० २१. 'नैयायिकादिभि:'-तुलना-कन्दली पृ० ३० ।
पृ०. २२. पं० २२. 'नैयायिकास्तु'-भारतीय दर्शनशास्त्रों में प्रमेय तथा विविध 15 आचार विषयक मतमतान्तर जो बहुत पुराने समय से प्रचलित हैं उनके पारस्परिक खण्डन.
मण्डन की प्रथा भी बुद्ध-महावीर जितनी पुरानी तो अवश्य ही है पर हम उस प्राचीन खण्डन-मण्डन प्रथा में प्रमाणलक्षणविषयक मतभेदों का पारस्परिक खण्डन-मण्डन नहीं पाते। इसमें तो सन्देह नहीं कि दिङ्नाग के पहिले ही प्रमाणसामान्य और प्रमाणविशेष
के लक्षण के सम्बन्ध में बौद्ध, वैदिक आदि तार्किक अपने-अपने मन्तव्य का प्रतिपादन करने 20 के साथ हो मतान्तरों का खण्डन करने लग गये थे, क्योंकि दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय में ऐसा खण्डन स्पष्ट हम पाते हैं।
दर्शनसूत्रों के उपलब्ध वात्स्यायन, शाबर, प्रशस्त, योग आदि प्राचीन भाष्यों में प्रमाण के लक्षण सम्बन्धी मतान्तरों का खण्डन यद्यपि नहीं है तथापि दिङ्नाग के उत्तरवर्चि
उन्हीं भाष्यों के व्याख्याग्रन्थों में वह पारस्परिक खण्डन स्पष्ट एवं व्यवस्थित रूप से देखा 25 जाता है। दिङ्नाग ने प्रत्यक्ष के लक्षण सम्बन्धी नैयायिक, मीमांसक आदि के मत का
खण्डन किया है (प्रमाणसमु. १. १६ से)। इसका जवाब वात्स्यायन के टीकाकार उद्योतकर (न्यायवा० १.१.४ ) और शाबर के टीकाकार कुमारिल ( श्लोकवा० प्रत्यक्ष श्लो० ४२ से) आदि ने दिया है। ईसा की छठी, सातवीं शताब्दि तक तो यह तार्किकों की एक प्रथा ही
हो गई जान पड़ती है कि अपने लक्षण ग्रन्थों में मतान्तरों का खण्डन किये बिना स्वमत 30 स्थापन पूर्णतया न समझा जाय ।
जैनपरम्परा में भी प्रमाण के लक्षण सम्बन्धी स्वमतप्रतिपादन तो हम आगमयुग से देखते हैं और यही प्रथा उमास्वाति तक बराबर चली आई जान पड़ती है पर इसमें मता. न्तर के कुछ खण्डन का प्रवेश पूज्यपाद से ( सर्वार्थ० १. १०) हुआ जान पड़ता है। प्रमाण
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