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पृ० २२. पं०६]
भाषाटिप्पणानि। 'पृ०. २२. पं० ३. 'संख्येयमसंख्येयं वा'-तुलना. "उग्गहो एक्कं समयं इहावाया मुहुत्तमंतं तु ।
कालमसंखं संखं च धारणा होइ नायव्वा ॥"-श्राव नि० ४ । नन्दो० सू० ३४ । पृ०. २२. पं० ६. 'ज्ञानादतिरिक्त'-तुलना-प्रशस्त० पृ० २६७ । मुक्ता० का० १६०, १६१ ।
पृ०. २२. पं० ६. 'नन्वविच्युतिमपि'-जैनपरम्परा में मतिज्ञान का धारणानामक 5 चौथा भेद है। प्रागम (नन्दी० सू० ३४), नियुक्ति (आव० नि० ३) और तत्त्वार्थभाष्य (१. १५) तक में धारणा का पर्यायकथन के सिवाय कोई खास विश्लेषणपूर्वक अर्थकथन देखा नहीं जाता। जान पड़ता है कि इस बारे में प्रथम प्रयत्न पूज्यपाद का ( सर्वार्थ० १. १५ ) है। पूज्यपाद ने अविस्मृति के कारण को धारणा कहकर जो नया अर्थसूचन किया उसके ऊपर दो परम्पराएँ शुरू हुई। क्षमाश्रमण जिनभद्र ने नियुक्ति का भाष्य करते समय धारणा 10 का बारीकी एवं विस्तार के साथ विचार किया और अन्त में बतलाया कि अविच्युति, . वासना ( जिसे संस्कार भी कहते हैं ) और स्मृति ये तीनों धारणा' हैं। पूज्यपाद के अनुगामी प्रकलङ्क ( तत्त्वार्थरा० १. १५ ), विद्यानन्द ( तत्त्वार्थश्ला० १. १५. २१, २२ ) और अनन्तवीर्य इन तीनों प्रसिद्ध दिगम्बराचार्यों ने पूज्यपाद के संक्षिप्त सूचन का ही विस्तृत और ससर्क उपपादन करके कहा कि स्मृति का कारण संस्कार-जो जैन दृष्टि से वस्तुत: ज्ञानस्वरूप ही है 15 वह-धारणा है। इस तरह धारणा के अर्थ में दो परम्पराएँ देखी जाती हैं। जिनभद्र की परम्परा के अनुसार अविच्युति, संस्कार और स्मृति तीनों धारणा हैं और संस्कार कर्मक्षयोपशमरूप होने से प्रात्मीय शक्तिविशेष मात्र है, ज्ञानरूप नहीं। अकलङ्क प्रादि की दिगम्बरीय परम्परा के अनुसार स्मृति का कारण संस्कार ही धारणा है जो वस्तुत: ज्ञानस्वरूप
१ "अत्रोत्तरमाह–भएणई इत्यादि, भण्यतेऽत्र प्रतिविधानम् । किम् ? इत्याह-'इदं वस्तु तदेव यत् प्रागुपलब्धं मया' इत्येवंभूता कालान्तरे या स्मृतिरूपा बुद्धिरुपजायते, नन्विह सा पूर्वप्रवृत्तादपायात निर्विवादमभ्यधिकैव, पूर्वप्रवृत्ताऽपायकाले तस्या अभावात् ; सांप्रतापायस्य तु वस्तुनिश्चयमात्रफलत्वेन पूर्वापरदर्शनानुसंधानाऽयोगात् । ततश्च साऽनन्यरूपत्वाद् धृतिर्धारणा नामेति पर्यन्ते संबन्धः। यतश्च यस्माच्च वासनाविशेषात् पूर्वोपलब्धवस्त्वाहितसंस्कारलक्षणात् तद्विज्ञानावरणक्षयोपशमसान्निध्यादित्यर्थः, सा 'इदं तदेव' इति लक्षणा स्मृतिर्भवति । साऽपि वासनापायादभ्यधिकेति कृत्वा धृतिर्नाम, इतीहापि संबन्धः। 'जा याऽवायेत्यादि' या चाऽपायादनन्तरमविच्युतिः प्रवर्तते साऽपि धृति म । इदमुक्कं भवति यस्मिन् समये 'स्थाणुरेवाऽयम्' इत्यादिनिश्चयस्वरूपोऽपायः प्रवृत्तः, ततः समयादूर्ध्वमपि 'स्थाणुरेवाऽयम्, स्थाणुरेवाऽयम्' इत्यविच्युता याऽन्तमुहूर्त क्वचिदपायप्रवृत्तिः साऽप्यपायाऽविच्युतिः प्रथमप्रवृत्तापायादभ्यधिकेति धृतिर्धारणा नामेति । एवमविच्युति-वासना-स्मृतिरूग धारणा त्रिधा सिद्धा भवति ।......
वासनापि स्मृतिविज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमरूपा, तद्विज्ञानजननशक्तिरूपा चेष्यते। सा च यद्यपि स्वयं ज्ञानरूपा न भवति, तथापि पूर्वप्रवृत्ताऽविच्युतिलक्षणज्ञानकार्यत्वात् , उत्तरकालभाविस्मृतिरूपज्ञानकारणत्वाच्चोपचारतो ज्ञानरूपाऽभ्युपगम्यते । तद्वस्तुविकल्पपक्षस्त्वनभ्युपगमादेव निरस्तः। तस्मादविच्युतिस्मृति-वासनारूपाया धारणायाः स्थितत्वाद् न मतेस्त्रैविध्यम् , किन्तु चतुर्धा सेति स्थितम् ॥"-विशेषा० बृ० गा०१८८, १८६ ।
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