SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ प्रेमाणमीमांसायाः [पृ० १६.५० २५ नागार्जुन ने मध्यमिककारिका "चत्वारः प्रत्यया हेतुश्चालम्बनमनन्तरम् । तथैवाधिपतेयं च प्रत्ययो नास्ति पञ्चमः ॥" में (१.२ ) तथा वसुबन्धु ने अभिधर्मकोश (परि० २. श्लो० ६१.६४) में चार प्रत्ययों का कथन 5 व वर्णन किया है जिनका खुलासा वाचस्पति मिश्र ने भामती ( २.२.१६ ) में तथा माधवाचार्य ने सर्वदर्शनसंग्रह (पृ० ३६) में सविस्तर किया है। वे ही चार प्रत्यय ज्ञाननिमित्तरूप से प्रा० हेमचन्द्रोद्धृत इस कारिका में निर्दिष्ट हैं "नीलाभासस्य हि चित्तस्य नीलादालम्बनप्रत्ययानीलाकारता। समनन्तरप्रत्ययात्पूर्वविज्ञानाद् बोधरूपता। चक्षुषोऽधिपतिप्रत्ययाद्रूपग्रहणप्रतिनियमः। आलोकात्सहकारि10 प्रत्ययाद्धता: स्पष्टार्थता। एवं सुखादीनामपि चैत्तानां चित्ताभिन्नहेतुजानां चत्वार्येतान्येव कारणानि ।"-भामती २. २. १६ । पृ० १६. पं० २५. 'नार्थालोको-प्रकलङ्क से लेकर सभी जैन तार्किको ने जिस अर्थालोककारणतावाद का निरास किया है वह बौद्ध का ही है। न्याय आदि दर्शनों में भी जन्यप्रत्यक्ष के प्रति अर्थ कारण माना गया है और चाक्षुष प्रत्यक्ष में आलोक भी। तब 15 प्रश्न होता है कि क्या उन जैनाचार्यों के सामने उक्त कारणतासमर्थक बौद्ध ग्रन्थ ही थे और न्याय प्रादि के ग्रन्थ न थे १ या नैयायिकों ने उस पर चर्चा ही न की थी। इसका उत्तर यह है कि उस प्राचीन समय में नैयायिक आदि वैदिक दार्शनिकों ने अर्थ और पालोक की कारणताविषयक कोई खास चर्चा छेड़ी न थी, और तद्विषयक खास सिद्धान्त भी स्थिर नहीं किये थे, जैसे कि बौद्ध तार्किकों ने इस विषय में विस्तृत ऊहापोह करके सिद्धान्त स्थिर किये थे। 20 अतएव जैन तार्किकों के सामने बौद्धबाद ही उक्त कारणतावादरूप से उपस्थित रहा और उन्होंने उसी का निरास किया। गङ्गेश उपाध्याय ने अपने प्रत्यक्ष चिन्तामणि ग्रन्थ (पृ. ७२० ) में विषय और आलोक के कारणत्व का स्पष्ट एवं स्थिर सिद्धान्त रखा। पर प्रा. हेमचन्द्र गङ्गेश के समकालीन होने से उनके देखने में चिन्तामणि ग्रन्थ नहीं पाया। यही कारण है कि आ० हेमचन्द्र ने इस अर्थालोककारणतावाद के निरास में अपने पूर्ववर्ती जैन तार्किकों 2 का ही अनुसरण किया है। तदुत्पत्ति-तदाकारता का सिद्धान्त भी बौद्ध है। बौद्धों में भी वह सौत्रान्तिक का है क्योंकि सौत्रान्तिक बाह्य विषय का अस्तित्व मानकर ज्ञान को तज्जन्य-तदाकार मानते हैं। इस सिद्धान्त का खण्डन विज्ञानवादी योगाचार बौद्धों ने ही किया है जो प्रमाणवार्तिक और उसकी टीका प्रमाणवार्तिकालङ्कार (पृ० ११) आदि में देखा जाता है। जैन ताकिकों ने 30 प्रथम से ही उसी खण्डनसरणी को लेकर उस वाद का निरास किया है। पृ०. २०. पं० १. 'न चासावा'-तुलना-"नाननुकृतान्वयव्यतिरेक कारणं नाकारणं विषयः इति बालिशगोतम् । तामसखगकुलानां तमसि सति रूपदर्शनं प्रावरणविच्छेदात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy