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१० १८. पं० २२.] भाषाटिप्पणानि ।
४३ वह प्रतिक्षण शरीर की तरह परिवर्तन भी प्राप्त करता रहता है जब कि भावमन ज्ञानशक्ति और ज्ञानरूप होने से चेतनद्रव्यजन्य है।
सभी दर्शनों के मतानुसार मन का कार्य इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख आदि गुणों की तथा उन गुणों के अनुभव की उत्पत्ति कराना है, चाहे वे गुण किसी के मत से प्रात्मगत हों जैसे न्याय, वैशेषिक, मीमांसक, जैन आदि के मत से: या अन्त:करण-बुद्धि के हों जैसे । सांख्ययोग-वेदान्तादि के मत से; या स्वगत ही हों जैसे बौद्धमत से। बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञान की उत्पत्ति में भी मन निमित्त बनता है और बहिरिन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानादि गुणों की उत्पत्ति में भी वह निमित्त बनता है। बौद्धमत के सिवाय किसी के भी मत से इच्छा, द्वेष, ज्ञान, सुख, दुःख, संस्कार आदि धर्म मन के नहीं हैं। वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक और जैन के अनुसार वे गुण प्रात्मा के हैं पर सांख्य-योग-वेदान्तमत के अनुसार वे गुण बुद्धि- 10 अन्त:करण-के हो हैं। बौद्ध दर्शन प्रात्मतत्त्व अलग न मानकर उसके स्थान में नाम-मन ही को मानता है अतएव उसके अनुसार इच्छा, द्वेष, ज्ञान, संस्कार आदि धर्म जो दर्शनभेद से प्रात्मधर्म या अन्त:करणधर्म कहे गये हैं वे सभी मन के ही धर्म हैं।
न्याय-वैशेषिक-बौद्धर आदि कुछ दर्शनों की परम्परा मन को हृदयप्रदेशवर्ती मानती है। सांख्य प्रादि दर्शनों की परम्परा के अनुसार मन का स्थान केवल हृदय कहा नहीं 15 जा सकता क्योंकि उस परम्परा के अनुसार मन सूक्ष्म-लिङ्गशरीर में, जो अष्टादश तत्त्वों का विशिष्ट निकायरूप है, प्रविष्ट है। और सूक्ष्मशरीर का स्थान समग्र स्थूल शरीर ही मानना उचित जान पड़ता है अतएव उस परम्परा के अनुसार मन का स्थान समग्र स्थूल शरीर सिद्ध होता है। जैन परम्परा के अनुसार भावमन का स्थान आत्मा ही है। पर द्रव्यमन के बारे में पक्षभेद देखे जाते हैं। दिगम्बर पक्ष द्रव्यमन को हृदयप्रदेशवर्ती मानता 20 है जब कि श्वेताम्बर पक्ष की ऐसी मान्यता का कोई उल्लेख नहीं दिखता। जान पड़ता है श्वेताम्बर परम्परा को समग्र स्थूल शरीर ही द्रव्यमन का स्थान इष्ट है।
पृ०. १६. पं० १०. 'सर्वार्थग्रहणम्'-तुलना-"सर्वार्थोपलब्धौ नेन्द्रियाणि प्रभवन्ति इति सर्वविषयम् अन्त:करणं मनः।"-न्यायभा० १.१.६ । “सर्व विषयमवगाहते यस्मात्"-सांख्यका०.३५ ।
पृ०. १६. पं० १७. 'मनोऽपि'-तुलना-"मनो द्विविधं. द्रव्यमनो भावमनश्चेति । तत्र 25 पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमनः। वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावारणक्षयोपशमापेक्षया आत्मनो विशुद्धिर्भावमनः ।" सर्वार्थ० २. ११; ५. १६ ।
पृ० १६. पं० २२. 'रूपालोकमनस्कार'-तुलना-नयचक्रवृ० लि. पृ. ४०B | अनेकान्तज० टी० पृ. २०६ ।
१ "तस्माञ्चित्तस्य धर्मा वृत्तयो नात्मनः" -सर्वद० पात० पृ० ३५२ । " २ “ताम्रपर्णीया अपि हृदयवस्तु मनोविज्ञानधातोराश्रयं कल्पयन्ति ।"-स्फुटा० पृ० ४११
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