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प्रमाणमीमांसायाः
[पृ०२.५०-२१विभाग में विद्यानन्द, अभयदेव और देवसूरि के लक्षण का स्थान है जो वस्तुत: सिद्धसेनसमन्तभद्र के लक्षण का शब्दान्तर मात्र है पर जिसमें अवभास के स्थान में 'व्यवसाय' या 'निर्णीति' पद रखकर विशेष अर्थ समाविष्ट किया है। अन्तिम विभाग में मात्र प्रा० हेमचन्द्र का लक्षण है जिसमें 'स्व', 'अपूर्व', 'अनधिगत' आदि सब उड़ाकर परिष्कार 5 किया गया है।
__पृ० २. पं० २१. 'प्रसिद्धानुवादेन'-लक्षण के प्रयोजन की विभिन्न चर्चाओं के अन्तिम तात्पर्य में कोई भेद नहीं जान पड़ता तथापि उनके ढंग जुदे जुदे और बोधप्रद हैं। एक ओर न्याय-वैशेषिक शास्त्र हैं और दूसरी ओर बौद्ध तथा जैनशास्त्र हैं। सभी न्याय-वैशेषिक
प्रन्थों में लक्षण का प्रयोजन 'इतरभेदज्ञापन' बतलाकर लक्षण को 'व्यतिरेकिहेतु' माना 10 है और साथ ही 'व्यवहार' का भी प्रयोजक बतलाया है।
बौद्ध विद्वान् धर्मोत्तर ने प्रसिद्ध का अनुवाद करके अप्रसिद्ध के विधान को लक्षण का प्रयोजन विस्तार से प्रतिपादित किया है, जिसकार देवसूरि ने बड़े विस्तार तथा प्राटोप के
साथ निरसन किया है। अकलंक का झुकाव व्यावृत्ति को प्रयोजन मानने की ओर है; परन्तु - प्रा० हेमचन्द्र ने धर्मोत्तर के कथन का आदर करके अप्रसिद्ध के विधान को लक्षवार्थ 1B बतलाया है।
. पृ० २. पं० २३. 'भवति हिं'-हेमचन्द्र ने इस जगह जो 'लक्ष्य' को पक्ष बना कर 'लक्षण' सिद्ध करनेवाला 'हेतुप्रयोग किया है वह बौद्ध-जैन ग्रन्थों में एक सा है।
. १ "तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम्"-न्यायभा० १.१.२. "लक्षणस्य इतरव्यव. च्छेदहेतुत्वात्"- न्यायवा० १.१.३. "लक्षणं नाम व्यतिरेकिहेतुवचनम्। तद्धि समानासमानजातीयेभ्यो विभिद्य लक्ष्यं व्यवस्थापयति "-तात्पर्य० १.१.३. "समानासमानजातीयव्यवच्छेदो लक्षणार्थ:"-न्यायम पृ०६५."लक्षणस्य व्यवहारमात्रसारतया समानासमानजातीयव्यवच्छेदमानसाधनत्वेन चान्याभावप्रतिपादनासामात्"-कन्दली० पृ०८. "व्यावर्तकस्यैव लक्षणत्वे व्यावृत्तौ अभिधेयत्वादौ च अतिव्याप्तिवारणाय तद्भिनत्वं धर्मविशेषणं देयम् । व्यवहारस्यापि लक्षणप्रयोजनत्वे तु न देयम्, व्यावृत्तेरपि व्यवहारसाधनत्वात् ।"दीपिका० पृ० १३. "व्यावृत्तिर्व्यवहारो वा लक्षणस्य प्रयोजनम् ।"-तर्कदी० गंगा पृ० १६. "ननु लक्षणमिदं व्यतिरेकिलिङ्गमितरभेदसाधकं व्यवहारसाधकं वा ।"-वै० उप०२.१.१.
२"तत्र प्रत्यक्षमनूद्य कल्पनापोढत्वमभ्रान्तत्वं च विधीयते। यत्तद्भवतामस्माकं चार्थेषु साक्षात्कारिज्ञानं प्रसिद्धं तत्कल्पनापोढाभ्रान्तत्वयुक्तं द्रष्टव्यम् । न चैतन्मन्तव्यं कल्पनापोढाभ्रान्तत्वं चेदप्रसिद्धं किमन्यत् प्रत्यक्षस्य ज्ञानस्य रूपमवशिष्यते यत्प्रत्यक्षशब्दवाच्यं सदनूद्यतेति । यस्मादिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यर्थेषु साक्षात्कारिज्ञानं प्रत्यक्षशब्दवाच्यं सर्वेषां सिद्धं तदनुवादेन कल्पनापोढाभ्रान्तत्वविधिः ।" न्यायबि० टी०१.४. "अत्राह धर्मोत्तरः-लक्ष्यलक्षणभावविधानवाक्ये लक्ष्यमनूद्य लक्षणमेव विधीयते । लक्ष्यं हि प्रसिद्धं भवति ततस्तदनुवाद्यम्, लक्षणं पुन: अप्रसिद्धमिति तद्विधेयम् । अज्ञातज्ञापनं विधिरित्यभिधानात् । सिद्धे तु लक्ष्यलक्षणभावे लक्षणमनूद्य लक्ष्यमेव विधीयते इति; तदेतदबन्धुरम् लक्ष्यवलक्षणस्यापि प्रसिद्धिन हि न सिद्धेति कुतस्तस्याप्यज्ञातत्वनिबन्धनो विधिरप्रतिबद्धः सिद्ध्येत् ।”-स्याद्वादर० पृ० २०.
३ "परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् ।" तत्त्वार्थरा० पृ०८२.
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