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________________ पृ० २.१०.२०] भाषाटिप्पणानि । ने कहीं 'अनधिगतार्थक' और 'अविसंवादि' दोनों विशेषणों का प्रवेश किया और कहीं स्वपरावभासक' विशेषण का भी समर्थन किया है। अकलंक के अनुगामी माणिक्यनन्दी? ने एक ही वाक्य में 'स्व' तथा 'अपूर्वार्थ' पद दाखिल करके सिद्धसेन-समन्तभद्र की स्थापित और प्रकलंक के द्वारा विकसित जैन परम्परा का संग्रह कर दिया। विद्यानन्द ने अकलंक तथा माणिक्यनन्दी की उस परंपरा से अलग होकर केवल सिद्धसेन और समन्तभद्र की व्याख्या । को अपने स्वार्थव्यवसायात्मक' जैसे शब्द में संगृहीत किया और 'अनधिगत' या 'अपूर्व पद जो अकलंक और माणिक्यनन्दी की व्याख्या में हैं, उन्हें छोड़ दिया। विद्यानन्द का 'व्यवसायात्मक' पद जैन परम्परा के प्रमाणलक्षण में प्रथम ही देखा जाता है पर वह अक्षपाद के प्रत्यक्षलक्षण में तो पहिले ही से प्रसिद्ध रहा है। सन्मति के टोकाकार अभयदेव ने विद्यानन्द का ही अनुसरण किया पर 'व्यवसाय के स्थान में 'निर्णीति' पद रक्खा । वादी५ 10 देवसूरि ने तो विद्यानंद के ही शब्दों को दोहराया है। प्रा० हेमचन्द्र ने उपर्युक्त जैन-जैनेतर भिन्न भिन्न परंपराओं का औचित्य-अनौचित्य विचार कर अपने लक्षण में केवल 'सम्यक्', 'अर्थ' और 'निर्णय' ये तीन पद रक्खे। उपर्युक्त जैन परम्पराओं को देखते हुए यह कहना पड़ता है कि भा० हेमचन्द्र ने अपने लक्षण में काट-छाँट के द्वारा संशोधन किया है। उन्होंने 'स्व' पद जो पूर्ववर्ती सभी जैनाचार्यों ने लक्षण में सन्निविष्ट किया था, निकाल दिया। 15 'अवभास', 'व्यवसाय' प्रादि पदों को स्थान न देकर अभयदेव के 'निर्णीति' पद के स्थान में - 'निर्णय' पद दाखिल किया और उमास्वाति, धर्मकीर्ति तथा भासर्वज्ञ के सम्यक पद को अपनाकर अपना 'सम्यगर्थनिर्णय' लक्षण निर्मित किया है। आर्थिक तात्पर्य में कोई खास मतभेद न होने पर भी सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर आचार्यों के प्रमाणलक्षण में शाब्दिक भेद है, जो किसी अंश में विचारविकास का सूचक 20 और किसो अंश में तत्कालीन भिन्न भिन्न साहित्य के अभ्यास का परिणाम है। यह भेद संक्षेप में चार विभागों में समा जाता है। पहिले विभाग में 'स्व-परावभास' शब्दवाला सिद्धसेन-समन्तभद्र का लक्षण आता है जो संभवत: बौद्ध विज्ञानवाद के स्व-परसंवेदन की विचारछाया से खाली नहीं है; क्योंकि इसके पहिले आगम ग्रन्थों में यह विचार नहीं देखा जाता। दूसरे विभाग में प्रकलंक-माणिक्यनन्दी का लक्षण आता है जिसमें 'अविसंवादि', 'अनधिगत' 25 और 'अपूर्व' शब्द आते हैं जो असंदिग्ध रूप से बौद्ध और मीमांसक प्रन्थों के ही हैं। तीसरे १ "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।"-परी० १.१ २ तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता। लक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ॥"-तत्त्वार्थ श्लो० १. १०.७७ ३ "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।”-न्याय सू० १.१.४. ४ "प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानम् ।”-सन्मतिटी०. पृ० ५१८. ५ "स्वपरव्यवसाथि ज्ञानं प्रमाणम् ।"-प्रमाणन. १. २. ६ "सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्गः।-तस्वार्थ० १.१. “सम्यग्ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिः ।"--न्यायबि० १.१. “सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम् ।"-न्यायसार पृ० १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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