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शृङ्गारी गिरिजानने (अ.) १८२, १५९. स गतः क्षितिम् (अ:) १५४ अ, १४३.
[ शृङ्गारतिलक प. १. लो. १०] स च्छिन्नबन्ध (वि.) १६४, १४०. शृङ्गोत्खातभुवः (वि.) ४२३, २८१.
[र. वं. स. ५. *लो. ४९] शेतां हरिभवतु (वि.) ११२, ३१. सन्नइ सुरहिमासो (वि.) १४१, ७२. शैलात्मजापि (अ.) १०१, १११. . सणियं वच्च (अ.) २१, ५५. .
[कु. सं. स. ४. *लो. ७५ ] / सततमनङ्गोऽनङ्गो (वि.) ३३६, २०३. शैलेन्द्रप्रतिपाद्यमान (अ.) ६२८, ३८८. सत्यं त्वमेव सरलो (अ.) ५८७, ३७३. शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां (वि) ३८३, २५४. |
[रु. का. ९-३५] [र. वं. स. १, 'लो. ८ ] सत्य मनोरमाः (अ.) १८८, १६२... शोकेन कृतस्तम्भः (वि.) १५७, ९२. [सुभाषितावली. 'लो. ३२६१] श्यामास्वङ्ग (अ.) ११, ४१. सत्त्वं सम्यक् (अ.) ४९७, ३३८.
[मे. दू. उ. लो. ४१] | स त्वार भरतो (अ.) ४५५, ३०१. श्यामा श्यामलिमानम् (अ.) ४१८, २७१.
[रु. का. अ. ३. १८] [वि. भ. अ. ३. *लो. १J सत्त्वारम्भरतो (अ.) ४५६, ३०१. श्याा स्मितासितसरोजदृशं(वि.)१२८,३५.
[रु. का. अ. ३. १९] श्यामेष्वङ्गेषु (वि.) २४१, १८५. श्रियः पतिः (वि.) २०१, १७४.
सदक्षिणापाङ्गनिविष्टमुष्टि(अ.) ६११,३८०.
। सदाप्नोति यतिर् (वि.) ५०३, ३१७. [शि. व. स. १. *लो. १]
[दे. श. 'लो. ८३.] श्रीपरिचयाद् (अ.) १७६, १५५.
सदामध्ये यासाम् (अ.) ३६८, २६१. [सुभा. २८५४ रविगुप्त ]
सदाव्याजवशिध्याताः (वि.) ५००, ३१७. श्रुतिसमधिकमुच्चैः (अ.) ४०८, २६९.
[ दे. श. श्लो. ८१] [शि. व. स. ११, 'लो. १.]
संध्यां यत्प्रणिपत्य (अ.) १०६, ११३. श्रुतेन बुद्धिर् (अ.) ४०१, २६७.
| सपदि पडि विहङ्गमनामभृत् (अ.)३१८,२३६ श्वासा बाष्पजलं (अ.) ७१२, ४१८. स एकस्त्रीणि (अ.) ५९५, ३७५..
सपदि हरिसखैर् (वि.) ६१८, ४६०.
[कि. अ. स. १० *लो. १८.] स एष (अ.) ४३५, २९६. सकलमहीभृत् (वि.) ६२४, ४६२.
स पातु वो यस्य (वि.) २०९, १७५ [ह. च. उ. ४ पृ. ११९ ] सभायां तादृश्यां (वि.) १३४, ४२. स किलेन्द्रप्रयुक्तेन (वि.) ४३१, २८३. सभ्रभङ्गं (अ.) ७३१, ४२७, सखजरीटा (वि) २६०, १८९.
धनिकस्य दशरूपकावलोक प्र.२. सू. ४२] सग्गं अपारिआयं (अ.) ५६०, ३६५...
समदमतगज (अ.) ५९२, ३७४. . [से. ब. ४-२०], समस्तगुणसंपदः (वि.) १८०, १५३.
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