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________________ ४७२ उदन्वच्छिन्ना भूः (अ.) २६४. २१८. | उरसि निहित (अ.) ७१८. ४२१. [बा. रा. अं. १,'लो. ८ ] | [अ. श. 'लो. ३१] उदाररचना (वि.) ४५७. .२९८. उर्वशी हाप्सराः (वि.) ४. ७. उदितोरुसाद (वि.) ६९४.४१४. [श. प्रा. का. ११. अ. ५ प्रा. १] [शि. व. स. ९. लो. ७७] | उषःसु वकुराकृष्ट (वि.) २७१. १९०.. उदीच्यच डानिल (वि.) २८९. १९२. | उष्णिहीव संसृतौ (वि.) ३. ७ उदेति सविता (अ). ४४४. २९९. . [छ. शा. भ. २. सू. ४८ ] [सुभा. २२० ] | फरुद्वन्द्व सरस (वि.) ५०. १८. उद्दण्डोदर पुण्डरीक (वि.) ६७. २२. रुद्वयं कदली (वि.) ५१. १८. उद्दामोत्कलिकां (अ.) ५. ३८. अक्षिताप (वि.) ३९५. २५७. [र. अं. २. लो. ४] ऋजुतां नयत (अ.) ६१२. ३८१. उद्देशोऽयं सरस (अ.) ३०. ६०. [कु. सं. स. ४ 'लो. २३ ] उद्धतैनिभृतमेक (अ.) ६९८. ४१५. । एकत्तो रुभइ (वि.) १८७. १६८.. [शि. व. स. १०. *लो. ७६] | एकत्रासनसंगते (अ.) ६९१. ४१३ उद्यता जयिनि (वि.) ३४०. २१०. [अ. श. 'लो. १९ (१)] उद्ययौ दीधिका (अ.) ३१२. २३५. एकः शङ्कामहिक्र (वि.) ३३८. २०४. उद्यानानां मूकपुंस्कोकिलत्व(वि.)२७९.१९१ | एकत्रिधा वचसि (वि.) ५७२. ४०२. उन्नतः प्रोलसद्धारः (अ.) ६२. ६८. एकस्मिञ्शयने (अ.) ९८. १०८. उम्मन्जन्मकर (अ.) २०५. २०१. [अ. श. "लो. ८३ ] [कि. स. १७. लो. ६३]/ एकस्यामेव तनौ (अ) ५८४. ३७३. [रु. का. ९. ३७] उपपन्नं ननु (वि.) ३६५. २५१. | एकं ज्योतिर्दशौ (वि.) २३१. १८४. .. [र. वं. स. १. लो. ६०Jए. [सु. श. 'लो. १३.] उपरि घनं (अ.) ५४५. ३५४. एकं ध्याननिमीलनाद् (वि.) १९०. १६८. उपपरिसरं गोदावर्या (अ) ४०४. २६८. एकाकिन्यपि (अ.) २६. ५९. उप्पह जायाए (वि.) ५४७. ३६०. [क. व. स. ५०० विद्यायाः.] उपानयन्ती कलहंस (वि.) २६१. १८९. एकेनाक्ष्णा (वि). १९१. १६९. उपोढरागेंण (अ.) ६०९. ३७८. [सुभा. १३१६. चन्द्रकस्य ] [ध्व. उ. १. पृष्ठ ५३ (पाणिनः)] एण्यः स्थलीष (वि.) ३ २. १९५. उभौ यदि व्योम्नि (अ.) ५२५. ३४७. | एतत्सुन्दरि (वि.) ९८. २८. [शि. व. स. ३. 'लो. ८] | एतासां राजति (अ.) २४९, २१४. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001066
Book TitleKavyanushasana Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRasiklal C Parikh
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1938
Total Pages631
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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