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________________ अंगविजापइण्णय गया है। हाँ शारीरिक दोषों और रोगों की अच्छी सूची इस प्रकरण में पायी जाती है। जैसे काण, अन्ध, कुट (टोटा), गंडीपाद ( हत्थीपगा, फील पाव), खंजा, कुणीक (टेढ़े हाथ वाला ), आतुर, पलित, खरड़ ( सिर में रुक्षता या मैल की पपड़ीवाला, गुजराती खोडो), तिलकालक, विपण्ण (विवर्णता), चम्मक्खोल (मस्सा), किडिग (सीप या श्वेत दाग, संस्कृत-किटिभ), दह (दष्ट-देश), किलास ( कुष्ठ ), कट्ठ (संभवतः कुट्ठ या कुष्ठ ), सिन्म (सिम्ह या श्लेष्म ) कुणिणह (कुनख-या टेढ़े मेढ़े नख ), खत (क्षत), अरूव ( अरूप ) कामल ( कामला) णच्छक (अप्रशस्त), पिलक (पिल्ल नामक मुख रोग ), चम्मक्खील, गलुक ( गलगंड ), गंड ( गूलर के आकार की फुडिया ), कोढ, कोट्टित ( अस्थिभंग), वातंड (वात के कारण अण्डवृद्धि ), अम्हरि ( अश्मरी पथरी), अरिस ( अर्श), भगंदर, कुच्छि-रोग ( अतिसार, जलोदर आदि ), वात गुम्म (वात गुल्म ), शूल, छड्डि (छर्दिवमन ) हिक्क ( हिचकी ), कंठे अवयि (कंठ का अपची नामक रोग=कंठमाला ), गलग (पेंघा या गिल्हड ), कट्ठसालुक ( कंठशालूक ), शालूक कण्ठ की जड़, अंग्रेजी ( टोन्सिलाईटिस), पट्ठिरोग (पृष्ठिरोग), खण्डोट्ठ (खण्डौष्ठ कटा हुआ ओष्ठ ), गुरुल करल (बड़े और कराल या टेढ़े-मेढ़े दांत), खंडदंत (टूटे हुए दांत ), सामदंत (श्याम-दंत, दाँतों का कालापन), ग्रीवा रोग, हत्थछेन्ज (हस्त च्छेद ), अंगुलि छेज, पाद छेज, शीर्ष ब्याधि, वातिक, पेत्तिक, श्लेष्मिक, सान्निपातिक आदि । ५१ वें अध्याय का नाम देवताविजय है। इसमें अनेक देवी-देवताओं के नाम हैं जिनकी पूजा उपासना उस युग में होती थी। जैसे यक्ष, गन्धर्व, पितर, प्रेत, वसु, आदित्य, अश्विनौ, नक्षत्र, ग्रह, तारा, बलदेव, वासुदेव, शिव, वेस्समण ( वैश्रवण), खंद (स्कंद), (विसाह (विशाख ), सागर, नदी, इन्द्र, अग्नि, ब्रह्मा, उपेन्द्र, यम, वरुण, सोम, रात्रि, दिवस, सिरी (श्री), अइरा (अचिरा=इन्द्राणी) ( देखिये पृ०६९), पुढवी (पृथिवी ), एकणासा (संभवतः एकामंशा), नवभिगा ( नवमिका ), सुरादेवी, नागी, सुवर्ण, द्वीपकुमार, समुद्रकुमार, दिशाकुमार, अग्निकुमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार (द्वीपकुमार से लेकर ये भवनपति देवों के नाम हैं)। लता देवता, वत्थु देवता, नगर देवता, श्मशान देवता, वञ्चदेवता (वर्चदेवता ), उकरुडिक देवता (कूड़ा-कचरा फेंकने के स्थान के देवता )। देवताओं की उत्तम, मध्यम, अवर ये तीन कोटियाँ कही गई हैं; अथवा आय और मिलक्खु या म्लेच्छ देवता । म्लेच्छ देवता हीन हैं (पृ० २०४-६)। ५२ वें अध्याय का नाम णक्खत्तविजय अध्याय है। इसमें इन्द्र-धनुष, विद्युत् स्तनित, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा, उदय अस्त, अमावास्या, पूर्णमासी, मंडल, वीथी, युग, संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, क्षण, लव, मुहूर्त, उल्कापात, दिशा दाह आदि के निमित्तों से फलकथन का वर्णन किया गया है। २७ नक्षत्र और उनसे होनेवाले शुभाशुभ फल का भी विस्तार से उल्लेख है (पृ० २०६-९)। ५३ वें अध्याय की संज्ञा उप्पात अध्याय है। पाणिनि के ऋगयनादि गण (४।३।७३ ) में अंगविद्या, उत्पात, संवत्सर मुहूर्त और निमित्त का उल्लेख आया है, जो उस युग में अध्ययन के फुटकर विषय थे। ग्रह, नक्षत्र, चन्द्र, आदित्य, धूमकेतु, राहु के अप्राकृतिक लक्षणों को उत्पात मानकर उनके आधार पर शुभाशुभ फल का कथन किया जाता था। इनके कारण जिन-जिन वस्तुओं पर विपरीत फल देखा जाता था उनका भी उल्लेख किया गया हैजैसे प्रासाद, गोपुर, इन्द्रध्वज, तोरण, कोष्ठागार, आयुधागार, आयतन, चैत्य, यान, भाजन, वस्त्र, परिच्छद, पर्यक, अरंजर, आभरण, शस्त्र, नगर, अंतःपुर, जनपद अरण्य, आराम, इन सब पर उत्पात लक्षणों का प्रभाव बताया जाता था (पृ० २१०-२११)। . अध्याय ५४ वें में सार-असार वस्तुओं का कथन है। सार वस्तुएँ चार प्रकार की हैं-धनसार, मित्रसार, ऐश्वर्यसार और विद्यासार। इनमें भी उत्तम मध्यम और अवर ये तीन कोटियां मानी गई थीं। धनसार के अन्तर्गत भूमि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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