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________________ ....भूमिका फलों का निर्देश किया गया है। आंगन में यदि पोती ( वस्त्र) और गंतक (एक प्रकार का वस्त्र, पाइयसहमहण्णवो ) बिखरे हुए दिखलाई पड़े और आसंदक ( बैठने की चौकी) आदि भग्न हों तो हानि और रोग सूचित होता है। यदि आंगन में अलंकृत और हृष्ट नर-नारी दिखाई दें तो संप्रीति और लाभ, यदि क्रुद्ध दिखाई दें तो हानि सूचित होती है। यदि भरा हुआ अरंजर (जल का बड़ा घड़ा) अकारण टूट जाय, अथवा कौवे या कुत्ते उसे भ्रष्ट कर दें तो गृहस्वामी का नाश सूचित होता है। इसी प्रकार अलिंजर अर्थात् जल का घड़ा और उसकी घटमंचिका (पेढिया) के नये पुरानेपन से भी विभिन्न विचार किया जाता है। श्रमण को प्रदत्त आसन और सिद्ध अन्न से भी निमित्त सूचित होते हैं। ओदन में कीट केश तृण आदि से भी अशुभ सूचित होता है। श्रमण के घर आने पर उससे जिस भाव और मुँह से कुशल प्रश्न (जवणोय) पूछा जाय उसके आधार पर वह सुख-दुःख का कथन करे। जैसे पराङ्मुख हो कर पूछने से हानि और अभिमुख हो कर पूछने से लाभ मिलेगा। रिक्तभाजन, उदकपूर्ण भांड, फल आदि जो-जो वस्तुएँ घर में दिखाई पड़ें बे सब अंगविद् के लिए इष्ट और अनिष्ट फल की सूचक होती हैं (पृ० १९५-७ )। ४७ वाँ यात्राध्याय है। इसमें राजाओं की सैनिक यात्रा के फलाफल का विचार किया गया है। उस सम्बन्ध में छत्र, भृङ्गार, व्यजन तालवृन्त, शस्त्र प्रहरण आयुध, आवरण वर्म कवच-इनके आधार पर यात्रा होगी या नहीं यह फलादेश बताया जा सकता है। यात्रा कई प्रकार की हो सकती है-विजयशालिनी (विजइका), आनन्ददायिनी (संमोदी ), निरर्थक, चिरकाल के लिये, थोड़े समय के लिए, महाफलवाली, बहुत क्लेशवाली, बहुत उत्सववती प्रभूत अन्नपानवाली, बहुत खाद्यपेय से युक्त, धन लाभवती, आयबहुला, जनपद लाभवालो, नगर लाभवाली, ग्राम, खेड लाभवती, अरण्यगमन भूयिष्ठा, आराम, निम्नदेश आदि स्थानों में गमन युक्त इत्यादि । यात्रा के समय प्रसन्नता के भाव से विजय और अप्रसन्नता के भाव से पराजय या विवाद ( झगड़ा) सूचित होता है। यात्रा के समय नया भाव दिखाई पड़े तो अपूर्व जय की प्राप्ति होगी। ऐसे ही वाहन-लाभ, अर्थलाभ आदि के विषय में भी यात्राफल का कथन करना चाहिये। किस दिशा में और किस ऋतु में किस निमित्त से यात्रा सम्भव होगी यह भी अंगविज्जा का विषय है (पृ० १९७-१९९)। ४८ वें जय नामक अध्याय में जय का विचार किया गया है। राजा, राजकुल, गण, नगर, निगम, पट्टण, खेड, आकर, ग्राम, संनिवेश-इनके संबंध में कुछ उत्तम चर्चा हो तो जय समझनी चाहिए। ऐसे ही ऋतुकाल में अनुकूल वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली, पुष्प, फल, पत्र, प्रवाल, प्ररोह आदि जय सूचित करते हैं। वस्त्र, आभरण, भाजन, शयनासन, यान, वाहन, परिच्छद आदि भी जय के सूचक हैं । छत्र, भृङ्गार, ध्वज, पंखा, शिबिका, रथ, प्रासाद, अशन, पान, ग्राम, नगर, खेड, पट्टण, अन्तःपुर, गृह, क्षेत्र सन्निवेश, आपण, आराम, तड़ाग, सर्वसेतु आदि के संबंध में उस शब्द या रूप का प्रादुर्भाव हो तो जानना चाहिए कि विजय होगी। इन्हीं के संबंध में यदि विपरीत भाव अथवा हीन दीन शब्द रूप की प्रतीति हो तो पराजय सूचित होती है। विजय के भी कितने ही भेद कहे गये हैं। जैसे अपने पराक्रम से, पराये पराक्रम से, विना पुरुषार्थ के सरलता से विजय, राज्य की विजय, राजधानी या नगर की विजय, शत्रु के देश की विजय, आय बहुल विजय, महाविजय, जोणिबहुलविजय (जिसमें धन का लाभ न हो किन्तु प्राणियों का लाभ हो), शस्त्रनिपात द्वारा विजय, प्राणातिपातबहुल विजय, अहिंसा द्वारा मुदित विजय आदि (पृ० १९९-२००)। ४९ वें अध्याय में इसी प्रकार के विपरीत चिह्नों से पराजय का विचार किया है (पृ० २०१-२)। ५० वें उबहुत ( उपद्रव ) नामक अध्याय में शरीर के विविध दोष और रोग आदि का विचार किया गया है। इसमें भी फल कथन का आधार वे ही वस्तु हैं जिनका यात्रा और जय के संबंध में परिगणन किया Jain Education Intemational Por Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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