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________________ ... .भूमिका. क्षेत्र, आराम, प्राम, नगर आदि के स्वामित्व की गणना की जाती थी। शयनासन पान भोजन वस्त्र भरण की स्मृद्धि को सार कहते थे। धनसार का एक भेद प्राणसार भी है। यह दो प्रकार का है--मनुष्यसार या मनुष्य समृद्धि और तिर्यक्योनिसार अर्थात् पशु आदि की समृद्धि । जैसे-हाथी, घोड़े, गौ, महिष, अजा, एडक, खर उष्ट्र आदि का बहुस्वामित्व । धनसार के और भी दो भेद हैं-अजीव और सजीव । अजीव के १२ भेद हैं-वित्तसार, स्वर्णसार रूप्यसार, मणिसार, मुक्तासार, वस्त्रसार, आभरणसार, शयनासन सार, भाजन सार, द्रव्योपकरणसार (नगदी), अब्भुपहज सार ( अभ्यवहार-खान-पान की सामग्री ), और धान्य सार । बहुत प्रकार की सवारी की संपत्ति यानसार कहलाती थी। मित्रसार या मित्र समृद्धि पांच प्रकार को होती थी-संबंधी, मित्र, वयस्क, स्त्री, एवं भृत्य की। बाहर और भीतर के व्यवहारों में जिसके साथ साम या सख्यभाव हो वह मित्र, और जिसके साथ सामान्य मित्रभाव हो वह वयस्य कहा जाता है। ऐश्वर्य सार के कई भेद हैं-जैसे, नायकत्व, अमात्यत्व, राजत्व, सेनापतित्व आदि । विद्यासार का तात्पर्य सब प्रकार के बुद्धि कौशल, सर्वविद्या, एवं सर्वशास्त्रों में कौशल या दक्षता से है (पृ० २११-२१३)। ५५ वें अध्याय में निधान या गड़ी हुई धनराशि का वर्णन है। निधान संख्या या राशि को दृष्टि से कई प्रकार का हो सकता है-जैसे शतप्रमाण, सहस्रप्रमाण, शतसहस्रप्रमाण, कोटिप्रमाण अथवा इससे भी अधिक अपरमित प्रमाण । एक, तीन, पांच, सात, नौ, दस, तीस, पचास, सत्तर, नब्बे, शत आदि भी निधान का प्रमाण हो सकता था। किस स्थान में निधान की प्राप्ति होगी इस विषय में भी अंगवित् को बताना पड़ता था। जैसे प्रासाद में, माल या ऊँचे खंड में, पृष्ठ वंश या बँडेरी में, आलग्ग (आलग्न अर्थात् प्रासाद आदि से मिले हुए विशेष स्थान खिड़की आले आदि), प्राकार, गोपुर, अट्टालक, वृक्ष, पर्वत, निर्गमपथ, देवतायतन, कृप, कूपिका, अरण्य, आराम, जनपद, क्षेत्र, गर्त, रथ्या, निवेशन, राजमार्ग, क्षुद्ररथ्या, निक्कुड (गृहोद्यान), रथ्या (मार्ग), आलग्ग (आलमारी या आला), कुड्या, णिव्व ( =नीक्र, छज्जा), प्रणाली, कूपी (कुइया), वर्चकुटी, गर्भगृह, आंगन, मकान का पिछवाड़ा (पच्छावत्थु) आदि में। निधान बताते समय इसका भी संकेत किया जाता था कि गड़ा हुआ धन किस प्रकार के पात्र में मिलेगा; जैसे, लोही (लोहे का बना हुआ गहरा डोलनुमा पात्र,), कड़ाह, अरंजर, कुड, ओखली, वार, लोहीवार ( लोहे का चौड़े मुँह का बर्तन)। इनमें से लोहा, कड़ाह और उष्ट्रिक (उष्ट्रिका नामक भाजन विशेष बहुत बड़े निधान के लिए काम में लाये जाते थे। कुंड, ओखली, वार और लोहवार मध्यम आकृति के पात्र होते थे। छोटों में आचमनी, स्वस्ति आचमनी, चरुक ओर ककुटुंडि (छोटो कुलंडिका या कुल्हड़ी; कुल्हड़िया घटिका, पाइयसहमहण्णवो)। अंगवित् को यह भी संकेत देना पड़ता था कि निधान भाजन में रखा हुआ मिलेगा या सीधे भूमि में गड़ा हुआ, अथवा वह प्राप्य है या अप्राप्य-पृ० २१३-२१४।। ... अध्याय ५६ की संज्ञा णिधि सुत्त या निधिसूत्र है। पहले अध्याय में निधान के परिमाण, प्राप्तिस्थान और भाजन का उल्लेख किया गया है। इस अध्याय में निधान द्रव्य के भेदों की सूची है। वह तीन प्रकार का Jain Education Intemational Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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