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________________ अंगविजापइण्णयं खलिण गिह ( वह कमरा जहाँ घोड़े का साज सामान रखा जाता है), बंधनगिह ( कारागार) जाणगिह (यानगृह) (पृ० १३६)। इस सूची के हिमगृह का विस्तृत वर्णन कादम्बरी में आया है। कुछ दूर बाद स्थापत्य संबंधी शब्दों की एक लम्बी सूची पुनः आती है जिसमें बहुत से नाम तो ये ही हैं और कुछ नये हैं, जैसे भग गिह (लिपा पुता घर, देशी भग्ग शब्द =लिपा पुता, देशी नाम माला ६।९९) सिंघाडग (श्रृंगाटक सार्वजनिक चतुष्पथ), रायपथ (राजपथ ), द्वार, क्षेत्र, अट्टालक, उदकपथ, वय (ब्रज), वप्प (वर), फलिहा (परिघ या अर्गला), पउली (प्रतोली, नगर द्वार ) अस्स मोहणक ( अश्वशाला), मंचिका (प्राकारके साथ बने हुए ऊँचे बैठने के स्थान), सोपान, खम्भ, अभ्यंतर द्वार, बाहरी द्वार, द्वारशाला, चतुरस्सक ( चतुष्क ), महाणस गिह, जलगिह, रयणगिह ( रत्नगृह, जिसे पहले रयत गिह या रजत गृह कहा है वही संभवतः रत्न गृह था ), भांडगृह, ओसहि गिह ( ओषधिगृह ), चित्तगिह (चित्र गृह ), लतागिह, दगकोढक ( उदक कोष्ठक ), कोसगिह ( कोषगृह ), पाणगिह (पानगृह ), वत्थगिह ( वस्त्रगृह, तोशाखाना ) जूतसाला ( द्यूतशाला ), पाणवगिह (पण्य या व्यवहारशाला), लेवण ( आलेपन या सुगंध शाला ), उज्जाणगिह ( उद्यान शाला ), आएसणगिह (आदेशन गृह ), मंडव ( मंडप), वेसगिह ( वेशगृह शृंगार स्थान ), कोट्ठागार ( कोठार ), पवा (प्रपाशाला ), सेतुकम्म सेतुकर्म , जणक (संभवतः जाणक-यानक ), ण्हाणगिह (स्नानगृह ), आतुरगिह, संसरणगिह (स्मृति गृह ), सुंकशाला (शुल्कशाला ), करणशाला ( अधिष्ठान या सरकारी दफ्तर ), परोहड ( घर का पिछवाड़ा)। अन्त में कहा है कि और भी अनेक प्रकार के गृह या स्थान मनुष्यों के भेद से भिन्न-भिन्न होते हैं, जिनका परिचय लोक से प्राप्त किया जा सकता है (पृ० १३७-१३८ )। बारहवें अध्याय में अनेक प्रकार की योनियों का वर्णन है। धर्मयोनि का संबंध धार्मिक जीवन और तत्संबंधी आचार-विचारों से है। अर्थयोनि का संबंध अनेक प्रकार के धनागम और अर्थोपार्जन में प्रवृत्त स्त्री-पुरुषों के जीवन से है। कामयोनि का संबन्ध स्त्री-पुरुषों के अनेक प्रकार के कामोपचारों से एवं गन्धमाल्य, स्नानानुलेपन, आभरण आदि की प्रवृत्तियों ओर भोगों से है। सत्त्वों के पारस्परिक संगम और मिथुन भाव को संगमयोनि समझना चाहिए। इसके प्रतिकूल विप्रयोगयोनि वह है जिसमें दोनों प्रेमी अलग-अलग रहते हैं। मित्रों के मिलन और आनंदमय जीवन को मित्रयोनि समझना चाहिए। जहाँ आपस में अमैत्री, कलह आदि हों और दो व्यक्ति अहि-नकुलं भाव से रहें वह विवादयोनि है। जहाँ ग्राम, नगर, निगम, जनपद, पत्तन, निवेश, स्कन्धावार, अटवी, पर्वत आदि प्रदेशों में मनुष्य दूत, सन्धिपाल या प्रवासी के रूप में आते-जाते हों, उस प्रसंग को प्रावासिक योनि मानना चाहिए। ये ही लोग जब ठहरे हुए हों तो उसे पत्थ या गृहयोनि समझना चाहिए। तेरहवें अध्याय में नाना प्रकार की योनियों के आधार पर शुभाशुभ फल का कथन है। सजीव, निर्जीव और सजीव-निर्जीव तीन प्रकार की योनि हैं और तीन ही प्रकार के लक्षण हैं, अर्थात् उदात्त, दीन और दोनोदात्त । (पृ० १४०-१४४) चौदहवें अध्याय में यह विचार किया गया है कि यदि प्रश्नकर्त्ता लाभ के सम्बन्ध में प्रश्न करे तो कैसा उत्तर देना चाहिए। लाभ सम्बन्धी प्रश्न सात प्रकार के हो सकते हैं-धनलाभ, प्रियजनसमागम, सन्तान या पुत्रप्राप्ति, आरोग्य, जीवित या आयुष्य, शिल्पकर्म, वृष्टि और विजय । इनका विवेचन चौदहवें से लेकर २१वें अध्याय तक किया गया है। वृष्टि द्वार नामक बीसवें अध्याय में जल सम्बन्धी वस्तुओं का नाम लेते हुए कोटिम्ब नामक विशेष प्रकार की नाव का उल्लेख आया है, जिसका परिगणन पृष्ठ १६६ पर नावों की सूची में पुनः किया गया है। धनलाभ के सम्बन्ध में फलकथन उत्तम वस्त्र, आभरण, मणि-मुक्ता, कंचन-प्रवाल, भाजन-शयन, भक्ष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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