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________________ भूमिका भोजन आदि मूल्यवान् वस्तुओं के आधार पर ओर प्रभत्तों द्वारा उनके विषय में दर्शन वा भाषण के आधार पर किया जाता था ( पृ० १४४ ) । पन्द्रहवें अध्याय में हंस, कुररी, चक्रवाक, कारण्डवं कादम्ब आदि पक्षियों को कामसम्बन्धी चेष्टाओं अथवा चतुष्पथ, उद्यान, सागर, नदी, पत्तन आदि की वार्ताओं के आधार पर समागम के विषय में किया गया है। इसमें संमोद, संप्रीति, मित्रसंगम या विवाह आदि फलों का उल्लेख किया जाता था । सोलहवें अध्याय में सन्तान के सम्बन्ध में प्रश्न का उत्तर कहा गया हैं, जो बच्चों के खिलौनों या तत्सदृश वस्तुओं के आधार पर कहा जाता था । सत्रहवें अध्याय में आरोग्य सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर पुष्प, फल, आभूषण आदि के आधार पर अथवा हास्य, गीत आदि भावों के आधार पर करने का निर्देश है। अठारहवें अध्याय में जीवन और मरण सम्बन्धी सनकथन का वर्णन है । कर्मद्वार नामक उन्नीसवें अध्याय में राजोपजीवी शिल्पी एवं उनके उपकरणों के सम्बन्ध में प्रकथन का उल्लेख है । वृष्टिद्वार नामक बीसवें अध्याय में उत्तम वृष्टि और सस्यसम्पत्ति के विषय में फलकथन का निर्देश है, जो नावा, कोटिम्ब, आलुआ नाम्रक नौका, पद्म उत्पल, पुष्प, फल, कन्दमूल, तैल, घृत, दुग्ध, मधुपान, वृष्टि, स्तमित, मेघगर्जित, विद्युत् आदि के आधार पर किया जाता था। विजयद्वार नामक इक्कीसवें अध्याय में जय-पराजय सम्बन्धी कथन है। तालवृन्त, भृङ्गार, वैजयन्ती, जय-विजय, पुस्समाणच, शिविका, रथ, मूल्यवान् बल, माल्य, आभरण आदि के आवार पर यह फलकथन किया जाता था । उसमें पुरसमाणव (पुण्यमायय) शब्द का उल्लेख महाभाष्य १२२३ में आया है (महीपालयचः श्रुत्वा मुषः पुष्यमाणाः) आगे पृष्ठ १६० पर भी सूत मागध के बाद पुष्यमाणव का उल्लेख हुश है, जिससे सूचित होता है कि ये राजा के बन्दी माग जैसे पार्श्वचर होने थे। इसी सूची में जब विजय विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है । वराहमिहिर की बृहत्संहिता के अनुसार ( अ० ४३, श्लोक ३९-४०) राज्य में सात प्रकार की ध्वजाएं शक्र-कुमारी कहलाती थीं। उनमें सब से बड़ी शक्रजनित्री या इन्द्रमाला, उससे छोटी दो वसुन्धरा, उनसे छोटी दो जया विजया और उनसे छोदी दो नन्दा- उपनन्दा कहलाती थीं ( पृ० १४६ ) । बाइसवाँ प्रशस्त नामक अध्याय है। इसमें उन उत्तम फलों की सूची हैं जिनका शुभ कथन किया जाता था। उनमें से कुछ विषय इस प्रकार थे— क्रय-विक्रय में लाभ, कर्म द्वारा प्राप्त लाभ, कीर्ति, वन्दना, मान, पूजा, उत्कृष्ट और कनिष्ठ शब्दों का श्रवण, सुन्दर केशविन्यास और मौलिबन्धन, केशाभिवर्धन, विवाह, विद्या, इक्षु, सस्य फल आदि का लाभ, खेती में सुभिक्ष, बन्धुजन-समागम, गेयं काव्य, पादबन्ध ( = श्लोकरचना ), पाठ्य काव्य, गौ आदि पशु एवं नर-नारी और स्वजनों की रक्षा, मन्धमाल्य, भाजन-भूषण आदि का संजोना यान, आसन, शयन, कमलवन, भ्रमर, बिग, हम आदि का समागम, घाव, वध, बन्ध एवं हास्य परिमोदन आदि की प्राप्ति, ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त, वसन्त, शरद आदि ऋतुओं की प्राप्ति, घोड़े, नूकर च्यादि का पकड़ना, घंटिक ( राजप्रासाद में घंटा वादन करने वाले ), कि (चाहि घोषणा करने वाला बंदीविशेष, अमरकोष २२८९६), सत्धिक (स्वस्ति वाचन करने वाला), वैतालिक ( प्रातःकाल स्तुतिपाठ द्वारा जागरण कराने वाला), मंगलवाचन, मूल्यवान रत्न आदि का ग्रहण, गन्ध, माल्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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