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अंगविजापइएणयं
परिशिष्टोंका परिचय इस ग्रन्थ के अन्तमें ग्रन्थके नवीनतमरूप पाँच परिशिष्ट दिये गये हैं। उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जाता है।
प्रथम परिशिष्ट--इस परिशिष्ट में अङ्गविद्याके साथ सम्बन्ध रखनेवाले एक प्राचीन अङ्गविद्या विषयक अपूर्ण ग्रन्थको प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थका आदि-अन्त न होनेसे यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ है या किसी ग्रन्थका अंश है---यह निर्णय मैं नहीं कर पाया हूं।
दसरा परिशिष्ट-इस परिशिष्टमें अङ्गविज्जा शास्त्रके शब्दोंका अकारादि क्रमसे कोश दिया गया है, जिसमें अङ्गविजाके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सब विषयों के विशिष्ट एवं महत्त्वके शब्दों का संग्रह किया है। प्रायोगिक दृष्टिसे जो शब्द महत्त्वके प्रतीत हुए हैं इनका और देश्य शब्दादिका भी संग्रह इसमें किया है। जिन शब्दों के अर्थादिका पता नहीं चला है वहाँ ( ? ) ऐसा प्रश्नचिन्ह रक्खा है। इसके अतिरिक्त प्रायः सभी शब्दोंका किसी न किसी रूपमें परिचयादि दिया है। सिद्धसंस्कृत प्रयोगादिका भी संग्रह किया है। इस तरह प्राकृत भाषा एवं सांस्कृतिक दृष्टिसे इसको महर्द्धिक बनानेका यथाशक्य प्रयत्न किया है।
तीसरा परिशिष्ट--इस परिशिष्टमें अङ्गविज्जाशास्त्र में प्रयुक्त क्रियारूपोंका संग्रह है। जो संग्रह प्राकृत भाषाविदों के लिये बहुमुल्य खजानारूप है। प्राकृत वाङ्मयके दसरे किसी भी ग्रन्थमें इतने क्रियापदोंका में मिलना सम्भावित नहीं है।
चौथा परिशिष्ट--इस परिशिष्टमें मनुष्यके अङ्गों के नामोंका संग्रह है, जिसको मैंने औचित्यानुसार तीन विभागों में विभक्त किया है। पहले विभागमें स्थाननिर्देशपूर्वक अकारादिक्रमसे अङ्गविज्जा शास्त्रमें प्रयुक्त अङ्गों के संग्रह हैं। दूसरे विभागमें अङ्गविज्जाशास्त्र प्रणेताने मनुष्यके अङ्गोंके आकार-प्रकारादिको लक्ष्यमें रखकर जिन २७० द्वारोंमें-प्रकारोंमें उनको विभक्त किया है उन द्वारों के नामोंका अकारादिक्रमसे संग्रह है। तीसरे विभाग में ग्रन्थकर्ताने जिस द्वारमें जिन अङ्गोंका समावेश किया है, उनका यथाद्वारविभाग संग्रह किया है। यथाद्वारविभाग यह अङ्गनामोंका संग्रह अकारादिक्रमसे नहीं दिया गया है, किन्तु ग्रन्थकारने जिस क्रमसे अङ्गनामोंका निर्देश किया है उसी क्रमसे दिया है। इसका कारण यह है कि इस शास्त्रमें अङ्गों के कितने ही नाम ऐसे हैं जिनका वास्तविक रूपसे पता नहीं चलता है कि इस नामसे शरीरका कौनसा अंग अभिप्रेत है। इस दशामें अन्य कारका दिया हुआ क्रम हो तद्विदों के लिये कल्पना एवं निर्णय का साधन बन सकता है।
पाँचवाँ परिशिष्ट-इस परिशिष्टमें अङ्गविज्जा शास्त्रमें आनेवाले सांस्कृतिक नामोंका संग्रह है। यह संग्रह मनुष्य, तिर्यंच, वनस्पति व देव-देवी विभागमें विभक्त है। ये विभाग मी अनेकानेक विभाग, उपविभाग प्रविभागोंमें विभक्तरूपसे दिये गये हैं। सांस्कृतिक दृष्टिसे यह परिशिष्ट सब परिशिष्टोंसे बड़े महत्त्वका है। इस परिशिष्टको देखनेसे विद्वानोंको अनेक बातें लक्ष्यमें आ जायेंगी।
इस परिशिष्टको देखनेसे यह पता चलता है कि प्राचीन काल में अपने भारतमें वर्ण-जाति-गोत्र-सगपण सम्बन्ध-अटक वगैरह किस प्रकारके होते थे, लोगोंकी नामकरण विषयमें क्या पद्धति थी, नगर-गाँव-प्रकारादिकी रचना किस ढंगकी होती थी, लोगोंके मकान शाला और उनमें अवान्तर विभाग कैसे होते थे, कौनसे रंग-वर्णमृत्तिका
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