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________________ प्रस्तावना १३ विविध चेष्टाएँ, जैसे कि बैठना, पर्यस्तिका, आमर्श, अपश्रय-आलम्बन टेका देना, खडा रहना, देखना, हँसना, प्रश्न करना, नमस्कार करना, संलाप, आगमन, रुदन, परिदेवन, क्रन्दन, पतन, अभ्युत्थान, निर्गमन, प्रचलायित, जम्माई लेना, चुम्बन, आलिंगन, सेवित आदि; इन चेष्टाओं को अनेकानेक भेद-प्रकारोंमें वर्णन भी किया है। साथमें मनुष्य के जीवनमें होनेवाली अन्यान्य क्रिया-चेष्टाओंका वर्णन एवं उनके एकार्थकोंका भी निर्देश इस ग्रन्थमें दिया है। इससे सामान्यतया प्राकृत वाङ्मयमें जिन क्रियापदोंका उल्लेख-संग्रह नहीं हुआ है उनका संग्रह इस ग्रंथमें विपुलतासे हुआ है, जो प्राकृत भाषाको समृद्धिको दृष्टिसे बड़े महत्त्वका है [ देखो तीसरा परिशिष्ट ] । सांस्कृतिक दृष्टिसे इस पंथमें मनुष्य, तिर्यंच अर्थात् पशु-पक्षि-क्षुद्रजन्तु, देव-देवी और वनस्पतिके साथ सम्बन्ध रखनेवाले कितने ही पदार्थ वर्णित हैं [ देखो परिशिष्ट ४ ] | इस ग्रन्थमें मनुष्य के साथ सम्बन्ध रखनेवाले अनेक पदार्थ, जैसे कि-चतुर्वर्ण विभाग, जाति विभाग, गोत्र, योनि-अटक, सगपण सम्बन्ध, कर्म-धंधा-व्यापार, स्थान-अधिकार, आधिपत्य, यान-वाहन, नगर-ग्राम-मडंब. द्रोणमुखादि प्रादेशिक विभाग, घर-प्रासादादिके स्थान-विभाग, प्राचीन सिके, भाण्डोपकरण, भाजन, भोज्य, रस सुरा आदि पेय पदार्थ, वस्त्र, आच्छादन, अलंकार, विविध प्रकारके तैल, अपश्रय-टेका देनेके साधन, रत-सुरत क्रीडाके प्रकार, दोहद, रोग, उत्सव, वादित्र, आयुध, नदी, पर्वत, खनिज, वर्ण-रंग, मंडल, नक्षत्र, काल-वेला, व्याकरण विभाग, इन सबके नामादि का विपुल संग्रह है। तिर्यग्विभागके चतुष्पद, परिसर्प, जलचर, सर्प, मत्स्य, क्षुद्रजन्तु आदिके नामादिका मी विस्तृत संग्रह है। वनस्पति विभागके वृक्ष, पुष्प, फल, गुल्म, लता आदिके नामों का संग्रह भी खूब है। देव और देवियों के नाम भी काफी संख्यामें हैं। इस प्रकार मनुष्य, तिर्यंच, वनस्पति आदिके साथ सम्बन्ध रखनेवाले जिन पदार्थों का निर्देश इस ग्रंथमें मिलता है, वह भारतीय संस्कृति र सभ्यताकी दृष्टिसे अतिमहत्त्वका है। आश्चर्य की बात तो यह है कि ग्रंथकार आचार्यने इस शास्त्रमें एतद्विषयक प्रणालिकानुसार वृक्ष, जाति और उनके अंग, सिक्के, भांडोपकरण, माजन, भोजन, पेयद्रव्य, आभरण, वस्त्र, आच्छादन, शयन, आसन, आयुध, शुद्रजन्तु आदि जैसे जड एवं क्षुद्रचेतन पदार्थों को भी इस ग्रन्थमें पुं-स्त्री-नपुंसक विभागमें विभक्त किया है। इस ग्रंथमें सिर्फ इन चीजों के नाम मात्र ही मिलते हैं, ऐसा नहीं किन्तु कई चीजोंके वर्णन और उनके एकार्थक भी मिलते हैं। जिन चीजों के नामों का पता संस्कृत-प्राकृत कोश आदिसे न चलेऐसे नामों का पता इस ग्रन्थके सन्दर्भोको देखनेसे चल जाता है। इस ग्रंथ में शरीरके अङ्ग, एवं मनुष्य-तिर्यंच-वनस्पति-देव-देवी वगैरहके साथ संबंध रखनेवाले जिन-जिन पदायों के नामों का संग्रह है वह तद्विषयक विद्वानोंके लिये अति महत्वपूर्ण संग्रह बन जाता है। इस संग्रहको भिन्न भिन्न दृष्टिसे गहराईपूर्वक देखा जायगा तो बड़े महत्त्वके कई नामोंका तथा विषयों का पता चल जायगा । जैसे कि-क्षत्रप राजाओंके सिक्कोंका उल्लेख इस ग्रन्थमें खत्तपको नामसे पाया जाता है [ देखो अ० ९ श्लोक १८६] | प्राचीन खुदाईमेसे कितने ही जैन आयागपट मोले हैं, फिर भी आयाग शब्दका उल्लेख-प्रयोग जैन ग्रन्थों में कहीं देखनेमें नहीं आता है, किन्तुइस ग्रन्थमें इस शब्दका उल्लेख पाया जाता है [ देखो पृष्ट १५२, १६८]। सहितमहका नाम, जो श्रावस्ती नगरीका प्राचीन नाम था उसका भी उल्लेख इस ग्रन्थमें अ० २६ १५३ में नजर आता है। इनके अतिरिक्त आजीवक, डुपछारक आदि अनेक शब्द एवं नामादिका संग्रह-उपयोग इस ग्रन्यमें दुआ जो संलोषकों के लिये महत्वका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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