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________________ १२ अंगविजापइएण्यं इस शास्त्र के निर्माताने एक बात स्वयं ही कबूल कर ली है कि इस शास्त्र का वास्तविक परिपूर्ण ज्ञाता कितनी भी सावधानीसे फलादेश करेगा तो भी उसके सोलह फलादेशों से एक असत्य ही होगा, अर्थात् इस शास्त्रकी यह एक त्रुटि है। यह शास्त्र यह भी निश्चितरूपसे निर्देश नहीं करता कि सोलह फलादेशोंमेंसे कोनसा असत्य होगा। यह शास्त्र इतना हो कहता है कि "सोलस वाकरणाणि बाकरेहिसि. ततो पुण एक चुक्तिहिसि, पण्णरह अच्छिड्डाणि भासिहिसि, ततो अजिणो जिणसं कासो भविहिसि पृष्ठ २६५, अर्थात् "सोलह फलादेश तू करेगा उनमेंसे एकमें चूक जायगा, पनरहको संपूर्ण कह सकेगा-बतलाएगा. इससे तू केवल ज्ञानी न होनेपर भी केवली समान होगा ।" इस शास्त्रके ज्ञाताको फलादेश करनेके पहले प्रश्न करनेवाले की क्या प्रवृत्ति है ? या प्रश्न करनेवाला किस अवस्थामें रहकर प्रश्न करता है ? इसके तरफ उसको खास ध्यान या खयाल रखनेका होता है। प्रश्न करनेवाला प्रश्न करने के समय अपने कौन-कौनसे अङ्गोंका स्पर्श करता है? वह बैठके प्रश्न करता है या खड़ा रहकर प्रश्न करता है ?, रोता है या हसता है, वह गिर जाता है, सो जाता है, विनीत है या अविनीत ?, उसका आना-जाना, आलिंगन-चुंबन करना, रोना, विलाप करना या आक्रन्दन करना, देखना, बात करना वगैरह सब क्रियाओं की पद्धतिको देखता है। प्रश्न करनेवालेके साथ कौन है ? क्या फलादि लेकर आया है ?, उसने कौनसे आभूषण पहने हैं वगैरहको भी देखता है और बादमें अङ्गविद्याका ज्ञाता फलादेश करता है । इस शास्त्रके परिपूर्ण एवं अतिगंभीर अध्ययनके बिना फलादेश करना एकाएक किसी के लिये भी शक्य नहीं है। अत: कोई ऐसी सम्भावना न कर बैठे कि इस गन्थ के सम्पादकमें ऐसी योग्यता होगी। मैंने तो इस वैज्ञानिक शास्त्रको वैज्ञानिक पद्धतिसे अध्ययन करने वालोंको काफी साहाय्य प्राप्त हो सके इस दृष्टिसे मेरेको मिले उतने इस शास्त्र के प्राचीन आदर्श और एतद्विषयक इधर-उधरकी विपुल सामग्रीको एकत्र करके, हो सके इतनी केवल शाब्दिक ही नहीं किन्तु आर्थिक संगतिपूर्वक इस शास्त्रको शुद्ध बनाने के लिये सुचारु रूपसे प्रयत्नमात्र किया है। अन्यथा मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि काफी प्रयत्न करनेपर भी इस ग्रन्थ की अतिप्राचीन भिन्न-भिन्न कुलकी शुद्ध प्रतियाँ काफी प्रमाणमें न मिलने के कारण अब भी ग्रन्थमें काफी खंडितता और अशुद्धियाँ रह गई हैं। मैं चाहता हूँ कि कोई विद्वान् इस वैज्ञानिक विषयका अध्ययन करके इसके मर्मका उद्घाटन करे । ऊपर कहा गया उस मुताबिक कोई वैज्ञानिक दृष्टिवाला फलादेशकी अपेक्षा इस शास्त्रका अध्ययन करे तो यह ग्रन्थ बहुत कीमती है-इसमें कोई फर्क नहीं है। फिर भी तात्कालिक दूसरी दृष्टिसे अगर देखा जाय तो यह ग्रन्थ कई अपेक्षासे महत्त्वका है। आयुर्वेदज्ञ, वनस्पतिशास्त्रा, प्राणीशास्त्री, मानसशास्त्री, समाजशास्त्री, ऐतिहासिक वगैरह को इस ग्रन्थमें काफी सामग्री मिल जायगी। भारत के सांस्कृतिक इतिहास प्रेमियों के लिये इस ग्रन्थमें विपुल सामग्री भरी पड़ी है। प्राकृत और जैन प्राकृत व्याकरणज्ञोंके लिये भी सामग्री कम नहीं है। भविष्यमें प्राकृत कोशके रचयिताको इस ग्रन्थका साधन्त अवलोकन नितान्त आवश्यक होगा। सांस्कृतिक सामग्री इस अंगविद्या ग्रन्थ का मुख्य सम्बन्ध मनुष्योंके अंग एवं उनकी विविध क्रिया चेष्टाओंसे होनेके कारण इस ग्रन्थमें मंग एवं क्रियाओंका विशदरूपमें वर्णन है। ग्रन्थ कर्त्ताने अंगोंके जाकार-प्रकार, वर्ण, संख्या, तोल, लिङ्ग, स्वभाव आदिको ध्यान में रखकर उनको २७० विभागों में विभक्त किया है [देखो परिशिष्ट ४]। मनुष्यों को Jain Education Interational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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