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________________ अंगविजापइएणयं पाठसुचक रिक्तबिन्दुओं के लिए देखो, पृष्ट पंक्ति-१८-९, २८-७, ६२-२४, ६३-४, ६७-२१, ७०-१३, ७४-२८, ७९-११, ८५-३, ९८-१५, ११६-२१, १२०-२८, १२७-२६, १२८-५, १२९-१५, १४१-११ आदि, १४२-१९, १५१-६, १५५-२०, २३३-३१, २३६-५, २४५-१५, २५०-१३, २६१-३, २६७.२३ आदि । जहाँ सभी प्रतियों में पाठ अशुद्ध मिले हैं वहाँ पूर्वापर अनुसंधान एवं अन्यान्य ग्रंथादिके आधारसे ग्रंथ को शुद्ध करने का प्रयत्न बराबर किया गया है। कभी-कभी ऐसे स्थानों में अशुद्ध पाठके आगे शुद्ध पाठको ( ) ऐसे वृत्त कोष्ठकमें दिया गया है। देखो पृष्ठ-पंक्ति २-६, ५-६, ९-१७, ३०-२२, ८१-१२, १२८-३२, १८३-६, १९६-२८ प्रभृति । मैं ऊपर अनेकबार कह आया हूं कि प्रस्तुत ग्रन्थक संशोधनके लिये मेरी नजर सामने जो हाथपोथियाँ हैं वे सब खंडित--भ्रष्ट पाठकी एवं अशुद्धि शय्यातररूप या अशुद्धि भाण्डागार स्वरूप हैं। वि ये प्रतियाँ दो कुल परम्परामें विभक्त हो जाने के कारण इन प्रतियोंने मेरे संशोधनमें काफी सहायता की है। एक कुल की प्रतियोंमें जहाँ अशुद्ध पाठ, गलितपाठ या गलितपाठ संदर्भ हो वहाँ दूसरे कुलकी प्रतियोंने सैकड़ों स्थानों में ठीक-ठीक जवाब दिया है। और ऐसा होनेसे यह कहा जा शकता है कि दोनों कुलकी प्रतियोंने जगह-जगह पर शुद्धपाठ, गलितपाठ और पाठसंदर्भो को ऐसे सँभाल रक्खे हैं, जिससे इस ग्रंथ की शुद्धि एवं पूर्ति हो सकी है। मेरी नजर सामने जो दो कुल की प्रतियाँ हैं उनमेंसे दोनों कुलों की प्रतियोंने कौनसे-कौनसे शुद्ध पाठ दिये, कौनसे कौनसे गलितपाठ और पाठसंदर्भकी पूर्ति की ?--इसका पता चले इसलिये मैंने प्रतिपृष्ठमें पाठभेदादि देनेका प्रयत्न किया है। जो पाठ या पाठसंदर्भ हं० त०प्रतियोंमेंसे प्राप्त हुए हैं और वे सं० ली. मो० पु० सि० प्रतियों में गलित है, वे मैंने दो हस्तचिन्हों के बीच में रक्खे हैं। देखो पृष्ठ-पंक्ति--३-४, ४.२४, १२-११, १४-११, २६-१५, ३२-१६, ३३-२०, ४२-२५ आदि, ४९-९ आदि, ५१-१२, ५२-२५, ६१-३१, ६६-४, ७३.१७ आदि, ७४-११ आदि, ७८-९, ८०-४, ८६-१, ८८-१६, ९७-७, आदि, ९९-६, १००-५ आदि, १०५-१३, १०६-१७, १०९-१४, ११०-१५, १११-२७, ११३-१३, ११५-२८, १२९-३०, १२०-२, १२९.५ आदि, १३१-८, आदि, १३२-१७, १३५-१ आदि, १५२-८, १६७-१२ आदि, १७२-६, १७७-२ आदि, १७८-२, १८५-१०, १८९-२०, १९०-२५, १९१-१७ आदि, १९४-१० आदि, १९६-१२, १९९.५, २००-३१, २०१-१ आदि, २०८-२८, २१०-२९, २११-२४, २१५-७, २१६-२६ २१७-९ आदि, २१८-९ आदि, २२५-२४, २२८.३२, २२९-१४, २४०-१५ आदि, २४३-५, २५२-१२, २५९.२८, २६०-३, २६१-८, २६२.९, २६६-१७ प्रभृति । इन सब स्थानोंमें श्लोकार्ध एवं संपूर्ण श्लोक गलित हैं। इनके अतिरिक्त इन स्थानों को भी देखें, जहाँ कि दो, तीन, चार और पाँच श्लोक जितना पाठ गलित है--पृष्ठ-पंक्ति १४-६, ४६-२३, ४९-१६, ९५-२५, ९८-३, ९८१४, १०८-२५, १३३-१७, १३७-१, १४२-२४, १५७-२९, १९३-२०, २०१-१६, २१३-१६, २५१-१२ । छोटे-छोटे गलितपाठ तो बहुत हैं। जो पाठ एवं पाठसंदर्भ सं० ली. मो. पु०सि० प्रतियोंमें उपलब्ध होते हैं किन्तु १० त. प्रतियोंमें गलित हैं. वे मैंने . . ऐसे त्रिकोण चिन्हके बीच में रक्खे हैं। देखो पृष्ठ-पंक्ति-१२-६, २१-२८, ३४-७, ३७-६, ४३-१०, ४७.३ आदि, ४८.२५, ४९-१२ आदि, ५४-१२, ६७-२२, ७४-१५, Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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