SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना किया है, फिर भी प्रतिके अक्षरों को पढ़ने में कोई कठिनाई नहीं है। शुद्धिकी अपेक्षा प्रति अति अशुद्ध है और स्थान-स्थानमें पाठ व पाठसंदर्भ गलित हैं प्रति मेरे संग्रहकी होनेसे मेरे नामके अनुरूप इसकी पु० संज्ञा रक्खी गई है। इसके अन्त की पुष्पिका सं० प्रतिके समान ही है, सिर्फ लेखनसंवत्में अन्तर है संवत् १५७३ आषाढादि ७४ प्रवर्त्तमाने मार्गशीर वदि १ रवी लष्यतं ॥ छ । ७ सि० प्रति-यह प्रति पूज्यपाद शान्तमूर्ति चरित्रचूडामणि श्रीमणिविजयजी दादाजीके शिष्यरत्न महातपस्वी चिरजीवी महाराज श्री १००८ श्रीविजयसिद्धिसूरीश्वरजी महाराजके अहमदाबाद-विद्याशालास्थित ज्ञानभण्डारकी है। इसकी पत्रसंख्या १५३ है। पत्रके प्रतिपृष्ठमें १४ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति ६६ अक्षर लिखित हैं । लिपि सुन्दर है और प्रति नई लिखी होनेसे इसकी स्थिति भी अच्छी है। शुद्धिकी दृष्टिसे प्रति बहुत ही अशुद्ध और जगह-जगह पर इसमें पाठ एवं पाठसंदर्भ छूट गये हैं। प्रति श्रीविजयसिद्धिसूरीश्वरजी महाराजश्रीके संग्रह की होनेसे इसकी संज्ञा मैंने सि० रक्खी है। इसके अन्तमें सं० प्रतिके समान ही पुष्पिका है। सिर्फ लेखनसंवत्में अन्तर है लि. भावसार भाईलाल जमनादास गाम वसोना संवत् १९५८ ना आषाढ शुदि १३ दिने पन्यास श्रीसिद्धविजयजीने काजे लिखी सम्पूर्ण करीछे ॥ छ । श्री॥छ॥:॥:॥छ । संशोधन और संपादन पद्धति उपरि निर्दिष्ट सात प्रतियों के अतिरिक्त युगप्रधान आचार्य श्रीजिनभद्रसूरि महाराज के जैसलमेरके प्राचीन ज्ञानमण्डारकी ताडपत्रीय प्रति, बड़े उपाश्रयकी ताडपत्रीय प्रति और थिरूशाहके भण्डारकी कागजकी प्रति, एवं बीकानेर, बड़ौदा, अहमदाबाद आदिके ज्ञानभण्डारोंकी कई प्रतियों का उपयोग इस ग्रन्थके संशोधनके लिए किया गया है। किन्तु इन प्रतियोंमेंसे एक भी प्रतिमें कोई भी ऐसा पाठ प्राप्त नहीं हुआ है कि जिससे ग्रन्थ के संशोधनमें विशिष्टता प्राप्त हो । अत: जिन प्रतियोंका इस संशोधनमें साद्यन्त उपयोग किया गया है उन्हीं का परिचय यहाँ दिया गया है। जैसलमेर आदि स्थानोंमें पादविहार करने के पूर्व ही मैंने इस ग्रन्थको सांगोपांग तैयार कर लिया था, किन्तु जब अन्यान्य ज्ञानभण्डारोंमें इस ग्रन्थ की प्रतियाँ मेरे देखने में आई तब उनके साथ मेरी प्रतिकृतिकी मैंने शीघ्र ही तुलना कर ली, परन्तु कोई खास नवीनता कहींसे भी प्राप्त नहीं हुई है। इस प्रकार अन्यान्य ज्ञानभण्डारोकी जो संख्याबंध प्राचीन-अर्वाचीन प्रतियाँ आज दिन तक मेरे देखने में आई हैं, उनसे पता चला है कि प्रायः अधिकतर प्रतियाँ-जिनमें जैसलमेरकी ताडपत्रीय प्रतियों का भी समावेश हो जाता है, एक ही कुल की और समान अशुद्धि एवं समान गलित पाठवाली ही हैं। है. और त. ये दो प्रतियाँ भी ऐसी ही अशुद्ध एवं गलित पाठवाली ही हैं, फिर भी ये दो प्रतियाँ अलग कुलकी होनेसे इन प्रतियों की सहायतासे यह ग्रन्थ ठीक कहा जाय ऐसा शुद्ध हुआ है-हो सका है । तथापि यह ग्रन्थ अन्य प्राचीन कुलकी प्रत्यन्तरों के अभावमें पूर्ण शुद्ध नहीं हो सका है, क्योंकि इसमें ऐसे बहुतसे स्थान है जहाँ प्रतियोंमें रिक्तस्थान न होनेपर भी अनुसन्धानके आधारसे जगह-जगह पर पाठ एवं पाठसंदर्भ खण्डित प्रतीत होते हैं। इन स्थानोंमें जहाँ पूर्ति हो सकी वहाँ करनेका प्रयत्न किया है। और जहाँ पूर्ति नहीं हो सकी है वहाँ रिक्तस्थानसूचक ..."ऐसे बिन्दु किये हैं। ये पूर्ति किये हुए पाठ और रिक्तस्थानसूचक बिन्दु मैंने [ ] ऐसे चतुस्र कोष्ठकमें दिये हैं। देखो पूर्ति किये हुए पाठपृष्ठ पंक्ति ९.१६, ११-९, १४-८, ४१-१५, ४६-२५, ५८.६, ७२-२४, ८५-११, ८६.२५, ९३.८, ९६-२८, ९७-६, ९७-१४, १०३-१३, १०६-३, १०९-५, २०७-१३, २१३-२९, आदि । और खंडित Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy