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________________ प्रस्तावना ८२-१७, ८५-५ आदि, १०२-२२, १३१-१ आदि, १३३-४ आदि, १५२-९, १६९-१४, १७०-५, १७३-३, १८९-२५, १९१-१८, १९२-११, १९६-१८, २०५-२२ आदि, २०८-२५, २११-१, २२९-१०, २४५-३, २४८.९, २५६-६, २५८-९, २६२-८, २६५-१५, २६८-१६, प्रभृति । इन स्थानों में श्लोकार्ध एवं संपूर्ण श्लोक गलित हैं। इनके अतिरिक्त इन स्थानों को भी देखिये, जहाँ दो-तीन-चार-पाँच श्लोक जितना संदर्भ गलित है-पृष्ठ-पंक्ति २४-२२, १०७.१५, १३७-८, १६६-१०, २३२-२१, २३६-१८, २६०-२५ । छोटे छोटे गलित पाठ तो अत्यधिक हैं। कहाँ कहीं एक-दूसरे कुल की प्रतियोंमें एक दो अक्षरादि गलित वगैरह हुआ है वहाँ उपरिनिर्दिष्ट चिन्ह नहीं भी किये गये हैं। संपादनमें मौलिक आधारभूत प्रतियाँ ऐसे तो इस ग्रंथके संशोधनमें यथायोग्य सब प्रतियाँ आधारभूत मानी गई हैं, फिर भी जहाँतक हो सका है, मैंने सं० ली. मो० प०सि० प्रतियों को ही मौलिक स्थान दिया है। जैसलमेरकी चौदहवीं एवं पंदरहवीं शताब्दी लिखित ताडपत्रीय प्रतियाँ एवं अन्यान्य भंडारकी सोलहवीं एवं पिछली शताब्दीयोंमें लिखित प्रतियोंका इसी कुलमें समावेश होता है। इन प्रतियोंको मौलिक स्थान देने का खास कारण यह है कि--जैन आगमिक प्राकृतभाषा जो प्रायः तकार बहुल ९ ह के स्थानमें धका प्रयोग आदिरूप है, वह इस कुल की प्रतियोंमें अधिकतया सुरक्षित है। हं० त० प्रतियों में आपवादिक स्थानों को छोड़कर सारे ग्रंथमें इस प्राचीन प्राकृत भाषाका समग्रभावसे परिवर्तन कर दिया गया है। ऐसा परिवर्तन करनेमें कहीं कहीं त आदि वर्गों का परिवर्तन गलत भी हो गया है, जो अर्थकी विकृतताके लिये भी हुआ है। अत: मुझे यह प्रतीत हुआ कि इस ग्रंथकी मौलिक भाषा जो इस कुल की प्रतियोंमें है वही होनी चाहिए। इस कारणसे मैंने सं० ली. मो० प० सि. प्रतियाँ मौलिक मानी हैं और इन्हीं प्रतियों की भाषा एवं पाठोंको मुख्य स्थान इस संशोधन एवं संपादनमें दिया है। किन्त जहाँपर सं०ली आदि प्रतियोंमें छट गया पाठ हं. त. प्रतियों से लिया गया है वहाँपर हं० त. प्रतियों में जो और जैसा पाठ है उसको बिना परिवर्तन किये लिया गया है। ग्रन्थका बाह्य स्वरूप यह ग्रन्थ गद्य-पद्यमय साठ अध्यायोंमें समाप्त होता है और नव हजार श्लोक परिमित है। साठवाँ अध्याय दो विभागमें विभक्त है, दोनों स्थानपर साठवें अध्यायकी समाप्ति सूचक पुष्पिका है। मेरी समझसे पुष्पिका अन्तमें ही होनी चाहिए, फिर भी दोनों जगह होनेसे मैंने पुव्वद्धं उत्तरद्धं रूपसे विभाग किया है। पूर्वार्धमें पूर्वजन्म विषयक प्रश्न-फलादेश हैं और उत्तरार्धमें आगामि जन्म विषयक प्रश्न-फलादेश हैं। आठवें और उनसठवें अध्यायके क्रमसे तीस और सत्ताईस पटल ( अवान्तर विभाग ) हैं। नवाँ अध्याय, यद्यपि कहीं कहीं पटलरूपमें पुष्पिका मिलनेसे ( देखो पृ. १०३ ) पटलों में विभक्त होगा परन्तु व्यवस्थित पुष्पिकायें न मिलनेसे यह अध्याय कितने पटलोंमें समाप्त होता है यह कहना शक्य नहीं। अत: मैंने इस अध्यायको पटलोंसे विभक्त नहीं किया है किन्तु इसके प्रारंभिक पटलमें जो २७० द्वार दिये हैं उन्हीके आधारसे विभाग किया है। मूल हस्तलिखित आदर्शों में ऐसे विभागोंका कोई ठिकाना नहीं है, न प्रतियों में पुष्पिकाओंका उल्लेख कोई ढंगसर है, न दोसौसत्तर द्वारोंका निर्देश भी व्यवस्थित रूपसे मिलता है, तथापि मैंने कहीं भ्रष्ट पुष्पिका, कहीं भ्रष्ट द्वारांक, कहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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