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८८ : धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण]
अपनी पकड़ में से मुझे मुक्त नहीं करती थी, दूसरी ओर विचारप्रकाश तथा नया-नया अवलोकन ये भी अपना पंजा फैलाते ही जाते थे। इसी खींचा-तान में से अन्त में तटस्थता का लाभ हुआ। जैनों ने जिसको सामायिक कहा है वैसा सामायिक-समत्व मन्थनकाल के दरमियान उदय में आने लगा और इस समत्व ने एकांगी बुद्धि और एकांगी श्रद्धा का न्याय किया अर्थात् दोनों को काबू में लिया। इसी समत्व ने मुझे सुझाया कि धर्मपुरुष के जीवन में जो सजीव और जो जागरित धर्मदेह होता है उसे चमत्कारों के आवरणों से क्या मतलब ? यह धर्मदेह तो चमत्कार के आवरण बिना ही स्वयंप्रकाश दिगम्बरदेह है। इसके बाद देखता हूं तो सभी महापुरुषों के जीवन में दिखाई देने वाली असंगतियाँ अपने आप ही खिसकती हुई नजर आईं। यद्यपि इस निदिध्यासन की तीसरी भूमिका अभी संपूर्ण नहीं है फिर भी इस भूमिका ने अब तक अनेक प्रकार के साहित्य का मंथन कराया और अनेक जीवित धर्मपुरुषों का समागम करने की प्ररणा दी तथा जोर देकर कुछ कह सक ऐसी मनःस्थिति भी प्रस्तुत की। श्रद्धा और तर्क की एकांगी प्रवृत्ति बन्द हो गई। सत्य जानने और प्राप्त करने की वृत्ति अधिक तीव्र हो गई। . इस भूमिका में अब मुझे यह समझ में आ गया कि एक ही महापुरुष के जीवन के जिज्ञासुओं में उसके जीवन की अमुक घटना या प्रसंग को लेकर किस कारण से मदभेद हो जाता है और क्यों वे एकमत नहीं हो सकते। जो जिज्ञासुवर्ग' श्रवण-वाचन की प्राथमिक श्रद्धा भूमिका में होता है वह दूर से मूति या चित्र को देखने वाले के समान शब्दस्पर्शी श्रद्धालु होता है। उसके विचार से प्रत्येक शब्द यथार्थता का बोधक होता है। वह शब्द के वाच्यार्थ से आगे बढ़ कर उसकी संगति-असंगति के विषय में विचार नहीं करता और ऐसा करने से शास्त्र मिथ्या हो जायगा-इस मिथ्या भ्रम में पड़कर श्रद्धा के बल से विचार के प्रकाश का विरोध करता है। उसका द्वार ही बन्द करने का यत्न करता है ।
दूसरा तर्कवादी जिज्ञासुवर्ग मुख्यरूप से शब्द के वाच्यार्थ की
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