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________________ [चार तीर्थंकर : ८७ होता है वह प्रथम श्रवण की ओर दूसरी तर्क या मनन की भूमिका में प्राप्त होने वाले परिचय की अपेक्षा अनेकगुना अधिक विशद, उत्कट और सप्रमाण होता है। संशोधन या निदिध्यासन की यह तीसरी भूमिका ही जीवन का सम्पूर्ण रहस्य प्राप्त करने वालो अंतिम भूमिका नहीं है । ऐसी भूमिका तो भिन्न ही है। इसके विषय में आगे कुछ कहा जायगा। मैंने भगवान् महावीर के जीवन के बारे में कल्पसूत्र जैसी पुस्तकों को पढ़-सुन कर जन्म से प्राप्त श्रद्धा के संस्कारों को पुष्ट किया था। मेरी उस श्रद्धा में भगवान महावीर के अलावा किसी भी अन्य धर्मपुरुष को स्थान नहीं था। श्रद्धा का वह चौका जितना छोटा और संकुचित था उतना ही उसमें विचार का प्रकाश भी कम था। किंतु धीरे-धोरे श्रद्धा को उस भूमिका में प्रश्न और तर्क-वितर्क के रूप में बुद्धि के अंकुर फूट । प्रश्न हुआ कि क्या एक माता के गर्भ से दूसरी माता के गर्भ में भगवान के संक्रमण की बात संभव हो सकती है ? ऐसी प्रश्नावली जैसे-जैसे बढ़ती गई वैसे-वैसे श्रद्धा ने भी उसके सामने सर उठाया। किन्तु विचार और तर्क के प्रकाश ने उसके सामने अवनत होना स्वीकार नहीं किया। इस उत्थान-पतन के के तुमुल द्वन्द्व का परिणाम शुभ ही हुआ। अब मैं बुद्ध, राम, कृष्ण, क्राइस्ट और जरथुस्त जैसे धर्मपुरुषों के और अन्य संतों के जोवन भी पढ़ने और समझने लगा और मैंने देखा कि उन सभी जीवनों में चमत्कार के अलंकारों की कोई मर्यादा ही न थी। प्रत्येक जीवन में एक दूसरे से बढ़कर और अधिकांश में एक सरीखे चमत्कार दिखाई दिये, तब मन में हुआ कि जीवन-कथा का मूलाधार ही तलाश करना चाहिए। भगवान् के साक्षात् जीवन के ऊपर तो ढाई हजार वर्षों का दुर्भेद परदा पड़ा हुआ ही है। तब क्या जो जीवन-वर्णन मिलता है वह उन्होंने स्वयं ही किसी से कहा था या निकटवासी शिष्यों ने उसे लिख लिया था या यथावत् स्मृति में ही रखा था? वस्तुतः इस प्रकार के प्रश्नों ने भगवान् के जीवन की यथार्थ झाँकी करा सके ऐसे अनेक प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन की ओर मुझे प्रवृत्त किया; इसी प्रकार बुद्ध और राम कृष्ण आदि धर्मपुरुषों के, जीवनमूल जानने की ओर भी प्रवृत्त किया। एक ओर प्राथमिक श्रद्धा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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