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________________ ८६ : धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण ] मंदिर में भगवान् महावीर जैसे धर्मपुरुष की सुरेख और शान्त मूर्ति हो, उसे देखने वाला एक व्यक्ति मन्दिर के प्रांगण में खड़ा होकर, दूसरा रंगमण्डप में और तीसरा व्यक्ति गर्भगृह में जाकर मूर्ति का निरीक्षण करता हो तब सभी की एकाग्रता और श्रद्धा समान होने पर भी उनकी दृष्टिमर्यादा में मूर्ति का प्रतिभास न्यूनाधिक मात्रा में भिन्न-भिन्न प्रकार का ही होगा । चित्र और मूर्ति के दृष्टान्त को जीवन कथा में लागू करके उसका विश्लेषण किया जाय तब मेरा मूल वक्तव्य स्पष्ट हो जायगा । जिन में भगवान् महावीर जैसे धर्मपुरुष का जीवन वर्णित हो उनमें से किसी एक या अधिक पुस्तकों को पढ़-सुन कर जब हम उनके जीवन का परिचय प्राप्त करते हैं तब मन में जीवन की छाप एक प्रकार की उठती है । पुनः उसी पठित जीवन के विविध प्रसंगों के विषय में उठने वाले नाना प्रश्नों का तर्कबुद्धि से निराकरण किया जाय तब पहला पढ़ा या सुना जीवन-परिचय बहुत विषयों में नया रूप धारण करता है । यह परिचय प्राथमिक परिचय की अपेक्षा अधिक गंभीर, उत्कट और स्पष्ट बन जाता है । मन की यह दूसरी भूमिका श्रवण की प्रथम भूमिका में प्राप्त और पुष्ट श्रद्धासंस्कारों के विरुद्ध कुछ बातों में क्रान्ति करने की प्रेरणा भी अर्पित करती है। श्रद्धा और बुद्धि के इस द्वन्द्व के फलस्वरूप जिज्ञासु उस द्वन्द्व से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयत्न करता है । परिणामतः जिज्ञासु अब तथ्य के शोध में और भी गहराई में जाता है । पहले उसने जिस किसी सर्वमान्य या बहुमान्य जीवनकथा को पढ़-सुन कर श्रद्धा को पुष्ट किया होता है या जिस किसी जीवनपुस्तक के विषय में अनेक - विध तर्क-वितर्क किये होते हैं, उसी पुस्तक का मूल खोजने की ओर वह अब प्रवृत्त होता है। उसके दिल में ऐसा होता है कि जिस पुस्तक के आधार से मैं जीवन के विषय में सोचता हूं उस पुस्तक में वर्णित प्रसंग घटनाओं का मूल आधार क्या है अर्थात् किन मौलिक आधारों से यह जीवनकथा लिखी गई है । ऐसी जिज्ञासा उसे जीवनकथा की मौलिक सामग्री की खोज के लिए प्राप्त सामग्री की परीक्षा के लिए प्रेरित करता है । ऐसे परीक्षण के फलस्वरूप जो जीवनकषा प्राप्त होती है, जो इष्ट पुरुष के जीवन का परिचय प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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