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[चार तीर्थंकर : ८९
असंगति की ओर ही ध्यान देता है और उन दृश्यमान असंगतियों के पीछे रही हुई संगतियों की सर्वथा अवहेलना करके जीवनकथा कोही कल्पित मान लेता है । इसी प्रकार अपरिमार्जित श्रद्धा और शिथिल तर्क ये दो ही पारस्परिक विरोध के कारण हैं । संशोधन और निदिध्यासन की भूमिका में ये कारण : नहीं रहते इससे मन स्वस्थता से श्रद्धा और बुद्धि इन दोनों पंखों का आश्रय लेकर सत्य की ओर अग्रसर होता है ।
तीसरी भूमिका में अब तक जो प्रगति मेरे मन ने सिद्ध की है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि उसमें प्रथम और दूसरी भूमिका समाविष्ट हो जाती है । अब मेरे सामने भगवान् महावीर का जो चित्र या जो मूर्ति उपस्थित है उसमें उनकी जीवनकथा में जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त पद-पद पर उपस्थित होने वाले करोड़ों देवों की दिखाई देने वाली असंगति और गर्भापहरण जैसी असंगति लुप्त हो जाती है । संशोधन निर्मित मेरी कल्पना के महावीर केवल मानवकोटि के और वह भी मानवता की सामान्य भूमिका को पुरुपार्थ बल से अतिक्रान्त करने वाले महामानव रूप हैं । जैसे प्रत्येक सम्प्रदाय के प्रचारक अपने इष्टदेव को सामान्य जनता के चित्त में प्रतिष्ठित करने के लिए अनायास ही दैवी चमत्कार इष्टदेव के जीवन में ग्रथित कर देते हैं, वैसे जैन संप्रदाय के आचार्य भी यदि करें तो उसे चालू प्रथा का प्रतिबिम्ब ही मानना चाहिए । ललितविस्तर आदि बौद्धग्रंथ बुद्ध के जीवन में ऐसे ही चमत्कारों का वर्णन करते हैं । हरिवंश और भागवत भी कृष्ण के जीवन को इसी प्रकार से आलोकित करते हैं । बाइबल भी दिव्य चमत्कारों से मुक्त नहीं है । किन्तु महावीर के जीवन में देवों की उपस्थिति का तात्पर्य निकालना हो तो वह यही हो सकता है कि महावीर ने सत्पुरुषार्थ द्वारा अपने जीवन में मानवता के आध्यात्मिक अनेक दिव्य सद्गुणों की विभूति प्राप्त की थी । ऐसी सूक्ष्म मनोगम्य विभूति साधारण जनता को सुगम करनी हो तो वह स्थूल रूपक के द्वारा ही हो सकती है । जहाँ स्वर्गीय देवों को उच्च स्थान प्राप्त हो वहाँ वैसे देवों के रूपक द्वारा ही दिव्य विभूति के वर्णन का संतोष
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