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________________ ८० : धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण ] सी असम्बद्धता और काल्पनिकता नजर आवे, यह स्वाभाविक है । परन्तु जिस युग में ये वृत्तान्त लिखे गये, जिन लोगों के लिए लिखे गये और जिस उद्देश्य से लिखे गये, उस युग में प्रवेश करके, लेखक और पाठक के मानस की जांच करके, उसके लिखने के उद्देश्य क विचार करके, गम्भीरतापूर्वक देखें तो हमें अवश्य मालूम होगा कि इस प्राचीन या मध्ययुग में महान् पुरुषों के जीवनवृत्तान्त जिस ढंग से चित्रित किये गये हैं वही ढंग उस समय उपयोगी था । आदर्श चाहे जितना उच्च हो, उसे किसी असाधारण व्यक्ति ने बुद्धि शुद्ध करके भले ही जीवनगम्य कर लिया हो, फिर भी साधारण लोग इस अति सूक्ष्म और अति उच्च आदर्श को बुद्धिगम्य नहीं कर सकते । तो भी उस आदर्श की ओर सबकी भक्ति होती है, सब उसे चाहते हैं, पूजते हैं । ऐसी अवस्था होने के कारण लोगों की इस आदर्श सम्बन्धी भक्ति और धर्मभावना को जागृत रखने के लिए स्थूल मार्ग स्वीकार करना पड़ता है । जनता की मनोवृत्ति के अनुसार ही कल्पना करके उसके समक्ष यह आदर्श रखना पड़ता है । जनता का मन यदि स्थूल होने के कारण चमत्कारप्रिय और देवदानवों के प्रताप की वासना वाला हुआ तो उसके सामने सूक्ष्म और शुद्धतर आदर्श को भी चमत्कार एवं दैवी बाना पहनाकर रखा जाता है । तभी सर्व - साधारण लोग उसे सुनते हैं और तभी वह उनके गले उतरता है । यही वजह है कि उस युग में धर्मभावना को जागृत रखने के लिए उस समय के शास्त्रकारों ने मुख्य रूप से चमत्कारों और अद्भुतताओं के वर्णन का आश्रय लिया है । इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि जब अपने पड़ोस में प्रचलित अन्य सम्प्रदायों में देवताई बातों और चमत्कारी प्रसंगों का बाजार गर्म हो तब अपने सम्प्रदाय के अनुयायियों को उस ओर जाने से रोकने का एक ही मार्ग होता है और वह यही कि अपने सम्प्रदाय को टिकाये रखने के लिए वह भी विरोधी और पड़ोसी सम्प्रदाय में प्रचलित आकर्षक बातों के समान या उससे अधिक अच्छी बातें लिखकर जनता के सामने उपस्थित करे । इस प्रकार प्राचीन और मध्ययुग में धर्मभावना को जागृत रखने तथा सम्प्रदाय को मजबूत करने के लिये भी मुख्य रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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