SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ : धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण] प्रकार कंस के भेजे हुए उपद्रवियों को कृष्ण द्वारा जीवित छोड़ने की बात जैनग्रंथों में पढ़ने को मिलती है। यही नहीं बल्कि सिवाय कृष्ण के और सब पात्रों के जैनदीक्षा स्वीकार करने का वर्णन भी हम देखते हैं। हाँ, यहाँ एक प्रश्न हो सकता है वह यह कि मूल में वसुदेव, कृष्ण आदि की कथा जैनग्रंथों में हो और बाद में वह ब्राह्मण ग्रंथों में भिन्न रूप में क्यों न ढाल दी गई हो? परन्तु जैन आगमों तथा अन्य कथाग्रन्थों में कृष्ण-पांडव आदि का जो वर्णन किया गया है उसका स्वरूप, शैली आदि को देखते हुए इस तर्क के लिए गुंजाइश नहीं रहती। अतएव विचार करने पर यही ठीक मालूम होता है कि जब जनता में कृष्ण की पूजा-प्रतिष्ठा हुई और इस सम्बन्ध का बहुत-सा साहित्य रचा गया और वह लोकप्रिय होता गया तब समय-सूचक जैन लेखकों ने रामचन्द्र की भांति कृष्ण को भी अपना लिया और पुराणगत कृष्ण-वर्णन में, जैन-दृष्टि से प्रतीत होनेवाले हिंसा के विष को उतार कर उसका जैन-संस्कृति के साथ सम्बन्ध स्थापित कर दिया। इससे अहिंसा की दृष्टि से लिखे जाने वाले कथा-साहित्य का विकास सिद्ध हुआ। जब कृष्ण-जीवन के ऊधम और शृगार से परिपूर्ण प्रसंग जनता में लोकप्रिय होते गये तब यही प्रसंग एक ओर तो जैन-साहित्य में परिवर्तन के साथ स्थान पाते गये और दूसरी ओर उन पराक्रमप्रधान अद्भुत प्रसंगों का प्रभाव महावीर के जीवन-वर्णन पर होता गया, यह विशेष संभव है। इसी कारण हम देखते हैं कि कृष्ण के जन्म, बालक्रीड़ा और यौवनविहार आदि प्रसंग, मनुष्य या अमनुष्य रूप असुरों द्वारा किये हुए उपद्रव एवं उत्पातों का पुराणों में जो अस्वाभाविक वर्णन है और कृष्ण द्वारा किये गये उन उत्पातों का जो अस्वाभाविक किन्तु मनोरंजक वर्णन है वही अस्वाभाविक होने पर भी जनता के मानस में गहरा उतरा हुआ वर्णन, अहिंसा और त्याग की भावनावाले जैन-ग्रन्थकारों के हाथों योग्य संस्कार पाकर महावीर के जन्म, बालक्रीड़ा और यौवन की . साधनावस्था के समय देवकृत विविध घटनाओं के रूप में स्थान - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy