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[ चार तीर्थंकर : ६५
(४) यदि एक सम्प्रदाय के वर्णन का प्रभाव दूसरे सम्प्रदाय के वर्णन पर पड़ा ही हो तो किसका वर्णन किस पर अवलम्बित है ? उसने मूल कल्पना या मूल वर्णन की अपेक्षा कितना परिवर्तन किया है और अपनी दृष्टि से कितना विकास सिद्ध किया है ?
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(१) उक्त चार पक्षों में से प्रथम पक्ष संभव नहीं है । एक ही देश, एक ही प्रान्त, एक ही ग्राम, एक ही समाज और एक ही कुटुम्ब जब दोनों सम्प्रदाय साथ ही साथ प्रवर्त्तमान हों तथा दोनों सम्प्रदायों के विद्वानों तथा धर्म-गुरुओं में शास्त्र, आचार और भाषा का ज्ञान एवं रीति-रिवाज एक ही हों, वहाँ भाषा और भाव में इतनी अधिक समानता रखने वाली घटनाओं का वर्णन, एक दूसरे से सर्वथा भिन्न या एक दूसरे के प्रभाव से रहित मान लेना लोकस्वभाव की अनभिज्ञता को स्वीकार करना होगा ।
( २ - ३ ) दूसरे पक्ष के अनुसार यह कल्पना की जा सकती है कि दोनों सम्प्रदायों का उक्त वर्णन पूर्णरूप में न सही, अल्पांश में ही किसी सामान्य भूमिका में से आया है । इस संभावना का कारण यह है कि इस देश में भिन्न-भिन्न समयों में अनेक जातियाँ आई हैं और वे यहीं आबाद हो गई हैं । संभव है वैदिक और जैन-संस्कृति के अंकुर पैदा होने से पहले गोप या अहोर जैसी बाहर से आई हुई या मूल से इसी देश में रहने वाली किसी विशेष जाति में, कृष्ण और कंस के संघर्षण के समान या महावीर और देवों के प्रसंगों के समान, अच्छी-अच्छी बातें वर्णित हों, और जब उस जाति में वैदिक और जैन -संस्कृति का प्रवेश हुआ या इन संस्कृतियों के अनुयायियों में उसका सम्मिश्रण हुआ तो उस जाति में प्रचलित और लोकप्रिय हुई उन बातों को वैदिक एवं जैन संस्कृति के ग्रन्थकारों ने अपनेअपने ढंग से अपने-अपने साहित्य में स्थान दिया हो । जब वैदिक तथा जैन संस्कृति के वर्णनों में कृष्ण का सम्बन्ध ग्वालों और अहीरों के साथ समान रूप से देखा जाता है और महावीर के जीवन - प्रसंग में भी ग्वालों का बारम्बार जिक्र पाया जाता है, तब तो दूसरे पक्ष को और भी अधिक सहारा मिलता है । परन्तु वर्तमान में दोनों संस्कृतियों का जो साहित्य हमें उपलब्ध है और जिस
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