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________________ ६४ : चार तीर्थंकर ] विषय में उसकी मान्यता जैन-संस्कृति के समान ही है, परन्तु समष्टि की दृष्टि से वह स्पष्ट घोषणा करती है कि हिंसा निर्बलता काही चिह्न है, यह ठीक नहीं, बल्कि विशेष अवस्था में तो वह बलवान् का चिह्न है, आवश्यक है, विधेय है, अतएव विशेष प्रसंग पर वह प्रायश्चित्त के योग्य नहीं है । लोकसंग्रह की यही वैदिक भावना सर्वत्र पुराणों के अवतारों में और स्मृति ग्रन्थों के लोक-शासन में हमें दिखलाई देती है । इसी भेद के कारण ऊपर वर्णन किये हुये दोनों महापुरुषों के जीवन की घटनाओं का ढाँचा एक होने पर भी उसका रूप और झुकाव भिन्न-भिन्न है । जैन समाज में गृहस्थों की अपेक्षा त्यागीवर्ग की संख्या बहुत कम है । फिर भी समस्त समाज पर ( योग्य या अयोग्य, विकृत या अविकृत ) अहिंसा को जो छाप लगी हुई है, और वैदिक समाज में परिव्राजकवर्ग अच्छी संख्या में होने पर भी उस समाज पर पुरोहित गृहस्थवर्ग की चातुर्वणिक लोकसंग्रह वाली वृत्ति का जो प्रबल और गहरा असर है, उसका स्पष्टीकरण उपर्युक्त संस्कृति-भेद में से आसानी के साथ प्राप्त किया जा सकता है । (२) घटना के वर्णन की परीक्षा - अब दूसरे दृष्टिबिन्दु के सम्बन्ध में विचार करना है । वह दृष्टिबिन्दु, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, यह है कि इन वर्णनों का आपस में एक दूसरे पर कुछ प्रभाव पड़ा है या नहीं ओर इससे क्या परिवर्तन या विकास सिद्ध हुआ है; इस बात की परीक्षा करना | सामान्यरूप से इस सम्बन्ध में चार पक्ष हो सकते हैं (१) वैदिक तथा जैन दोनों सम्प्रदायों के ग्रन्थों का वर्णन एक दूसरे से बिलकुल अलग है। किसी का किसी पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा है । (२) उक्त वर्णन अत्यन्त समान एवं बिम्ब प्रतिबिम्ब जैसा है अतः वह विलकुल स्वतन्त्र न होकर किसी एक ही भूमिका में से उत्पन्न हुआ है । (३) किसी भी एक सम्प्रदाय की घटनाओं का वर्णन दूसरी सम्प्रदाय के वैसे वर्णन पर आश्रित है अथवा उसका उस पर प्रभाव पड़ा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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